राजस्थान के भरतपुर जिले में स्थित डीग वह नगर है जहां से महाराजा बदनसिंह ने एक छोटी सी राजनीतिक शुरुआत की और देखते ही देखते यह स्थान अठारहवीं सदी की महत्त्वपूर्ण राजधानी बन गया। आज यह स्थान अपने सौंदर्य तथा बाग व जल व्यवस्था के आनुपातिक संतुलन में स्थित महलों के कारण पर्यटन के दृष्टिकोण से एक सुरम्य स्थल है। भौगोलिक दृष्टि से जाट राजाओं की शक्ति का केंद्र रही डीग नगरी की अवस्थिति 25°25′ उत्तरी अक्षांश तथा 77°15′ पूर्वी देशांतर पर है।
यह दिल्ली से लगभग 153 किमी दक्षिण, आगरा से लगभग 98 किमी उत्तर-पश्चिम तथा भरतपुर से लगभग 34 किमी की दूरी पर स्थित है। यहां तक वाया कोसी कलां, वाया मथुरा एवं वाया भरतपुर होकर सड़क मार्ग से पहुंचा जा सकता है। यहां एक रेलवे स्टेशन है जो यह मथुरा-अलवर रेलमार्ग पर भी पड़ता है।
डीग का संक्षिप्त इतिहास
मान्यता है कि प्राचीनकाल में डीग को दीर्घपुर कहा जाता है। इस दीर्घपुर का वर्णन ब्रजमंडल के एक प्रमुख नगर के रूप में स्कंद पुराण में किया गया है। पर इसके वर्तमान वैभव और पहचान के पीछे योगदान है भरतपुर राज्य के संस्थापक महाराजा बदनसिंह और उनके यशस्वी पुत्र महाराजा सूरजमल का, जिन्होंने यहां की मिट्टी के टीलों पर एक राजधानी का निर्माण कराया। इतना ही नहीं उन्होंने इस नगरी को लगभग साढ़े सात किमी लम्बी एक रक्षा प्राचीर से सुरक्षित भी किया। कालांतर में यह नगरी व्यापार, वाणिज्य, भवन निर्माण आदि के लिए पहचानी जाने लगी और देखते ही देखते यह उस समय की प्रमुख राजधानियों में से एक हो गई। बहुत जल्द ही यह शक्ति का एक ऐसा केंद्र हो गई जिसने न केवल राजपुताना साथ ही मुगल, रुहेलों, अफगानों और मराठों तक की राजनीति को प्रभावित किया।
बदनसिंह ने जाट शक्ति का नेतृत्व 1722 ईसवी में संभाला। उन्होंने सहार, कामर और डीग में दुर्ग निर्माण कराया। अपनी नई राजधानी के लिए उन्होंने डीग को चुना। पास के किसनपुर, मालपुर, अचलपुर और शाहपुर को घेरे में लेते हुए उन्होंने एक रक्षा प्राचीर बनवाई। इस प्राचीर के भीतर स्थित डीग नगरी में उन्होंने तमाम भवनों का निर्माण कार्य कराया। इस प्राचीर को विशाल बुर्जों तथा शाहबुर्ज को छोड़कर शेष स्थानों पर एक चौड़ी खाई के द्वारा मजबूत स्थिति प्रदान की गई थी। इस प्राचीर में अऊ, भूरा, पांहौरी, शाहपुर, बाँधा, कामां, देहली, जसोंदी, गोवर्धन तथा रामचेला नाम के दस दरवाजे लगे थे। पांहोरी तथा शाहपुर दरवाजों के बीच की दीवार पत्थरों की चिनाई से बनाई गई है शेष दीवार मिट्टी की बनी थी।
बदनसिंह ने एक विशाल महल का निर्माण कराया जो अब पुराना महल के नाम से जाना जाता है। सुदृढ दुर्ग और ऊंचे रक्षा प्राचीर सहित बुर्जों का निर्माण 1730 ईसवी में युवराज सूरजमल ने कराया। बदनसिंह के भाई रूपसिंह ने एक सुंदर सरोवर का निर्माण कराया जिसे अब ‘रूप-सागर’ कहा जाता है। कुछ समय बाद महाराजा सूरजमल अपनी राजधानी को भरतपुर ले गए पर डीग के प्रति उनका लगाव कम।नहीं हुआ। गोपाल सागर, गोपाल भवन, किशन भवन, हरदेव भवन आदि के निर्माण उन्हीं के समय पर दीवान जीवाराम बनचारी के कुशल निर्देशन में सम्पन्न हुए। सूरजमल की मृत्यु के बाद उनके पुत्र महाराजा जवाहर सिंह ने अपने पिता की योजना के अनुसार सूरज भवन का निर्माण कार्य कराया तथा बगीचों और फव्वारों के निर्माण कार्य को अंतिम रूप दिया। डीग के भवनों में संगमरमर का प्रयोग और सजावट की पच्चीकारी की तकनीक जवाहर सिंह की ही देन है। शहर के अंदर लक्ष्मण मन्दिर का निर्माण व जवाहर गंज को बसाने का कार्य भी जवाहर सिंह ने ही किया। शीश महल का निर्माण सूरजमल के छोटे पुत्र नवल सिंह ने कराया था। इसके बाद का समय डीग की शक्ति के पराभव का था जब जाट शासक अपनी इस महत्त्वपूर्ण नगरी को मुगल सेनापति मिर्जा नजफ़ खान के हाथों गवां बैठे। सूरजमल के सबसे छोटे पुत्र महाराजा रणजीत सिंह ने इसे फिर से प्राप्त किया लेकिन जल्द ही फिर डीग को वह ब्रिटिश के हाथ गंवा बैठे। पर अगले ही वर्ष 1805 ईसवी में ब्रिटिशों ने डीग को फिर से रणजीत सिंह को सौंप दिया।
डीग के भवनों का योजना विन्यास
यहां के भवनों के योजना विन्यास का केंद्र एक वर्गाकार उद्यान है, जिसके चार भुजाओं पर चार इमारतें खड़ी हैं तथा पूर्वी व पश्चिमी पृष्ठभूमि में रूप सागर व गोपाल सागर नाम के दो विशाल सरोवर हैं। पूर्व में केशव भवन, पश्चिम में गोपाल भवन, उत्तर में नंद भवन तथा दक्षिण में किशन भवन बने हुए हैं। गोपाल भवन के उत्तरी तरफ सावन भवन तथा दक्षिणी तरफ भादों भवन बने हुए हैं। उद्यान के दक्षिणी-पश्चिमी कौने पर किशन भवन से लगे हुए सूरज भवन व हरदेव भवन बने हुए हैं। उत्तरी छोर पर स्थित सिंह-पोल मुख्य प्रवेश द्वार है। इसके अतिरिक्त उत्तर-पूर्वी कौने पर सूरज द्वार व दक्षिण-पश्चिमी कौने पर नंगा-द्वार है।
डीग के सौंदर्य का केंद्र गोपाल भवन
सरोवर के किनारे पर बना गोपाल भवन एक विशाल इमारत है जो अपने वास्तुशिल्प के कारण अपनी समकालीन इमारतों में श्रेष्ठ है। इसकी परछाई सरोवर के जल में बनती है जिससे इसके सौंदर्य को चार चांद लग जाते हैं। 62.18×18.90 वर्ग मीटर के आयताकार भूखंड पर बने गोपाल भवन की ऊंचाई 9.75 मीटर है और इसकी छत सपाट है। यह भवन मुख्य रूप से तीन भागों में बंटा है। विशाल मुख्य कक्ष एक मंजिल का है, पार्श्व भाग दो मंजिला है तथा पिछला भाग चार मंजिला है। पिछले भाग में दो आयताकार भूमिगत कक्ष हैं, जिनका प्रयोग गर्मी में ठंडक पाने के लिए किया जाता था। गोपाल भवन का मुख्य कक्ष राजकीय स्वागत कक्ष है। मध्य भाग में मेहराबों की पंक्तियुक्त यह एक मंजिला कक्ष शाहजहां के दीवान-ए-आम की अनुकृति है, और ठीक उसी तरह यहां भी पिछली दीवार से झांकती वेदिका युक्त दीर्घा मौजूद है। मुख्य कक्ष के दूसरी तरफ महराबों से घिरा एक छोटा कक्ष है जहां से सरोवर और उसके पीछे स्थित रानी बाग का मनोरम दृश्य दिखता है।
शाहजहां के महल का संगमरमर का झूला
गोपाल भवन के ठीक सामने एक छोटे मंच पर बना एक सफेद संगमरमर का अलंकृत महराबयुक्त झूला है। यह झूला मुगलों का है जो इस पर दर्ज अरबी इबारत से ज्ञात होता है। इस झूले का निर्माण वर्ष हिजरी सम्वत 1041 (सन 1630-31 ईसवी) में हुआ था। इस अरबी लेख में किसी शासक का नाम नहीं है पर इसका काल शाहजहां के शासन का चौथा वर्ष है। अतः यह स्वीकार किया जा सकता है कि यह शाहजहाँ का रहा होगा। यह झूला आगरा के किले में था जहां 1761 में जब महाराजा सूरजमल ने अधिकार किया तब यह झूला वहां से लाया गया। यह झूला महाराजा सूरजमल के भतीजे और वैर के शासक राजा बहादुर सिंह वैरवाला ने ले जाकर वैर स्थित फूलवाड़ी में लगवा दिया। ब्रिटिश शासन के दौरान जब वैर की इमारतों की दुर्दशा हो रही थी तब एक ब्रिटिश अधिकारी ने इस झूले को वैर से उखाड़ कर यहां डीग के महलों में लाकर स्थापित कर दिया।
सूरजमल का सूरज भवन
इस भवन का नाम महाराजा सूरजमल के नाम पर रखा गया है। यह एक सफेद संगमरमर का बना सुंदर भवन है। 26.80 मीटर वर्गाकार क्षेत्र में बने इस एक मंजिला भवन की ऊंचाई 6.70 मीटर है। इस भवन के निर्माण में प्रयुक्त सामग्री और इसके वास्तु शिल्प की विशेषताएं शाहजहाँ के स्थापत्य से मिलती हैं। इस भवन के चारों ओर बरामदे बने हुए हैं और हर बरामदा पांच मेहराब वाले द्वारों से सामने की ओर खुलता है। बरामदे के हर कोने पर एक-एक कमरा बना है। ये सभी कमरे गलियारों के माध्यम से एक-दूसरे से जुड़े हैं। सूरज भवन किसी निवास कक्ष के बजाय एक दीर्घा की तरह है। सम्भव है इसका निर्माण रानियों के आराम और मनोरंजन को ध्यान में रखकर किया गया हो।
हरदेव भवन
सूरज भवन के ठीक पीछे स्थित यह आकर्षक आयताकार उद्यानयुक्त हरदेव भवन स्थित है। यह दो मंजिला भवन है जिसके निचले भाग में आगे की ओर निकला एक केंद्रीय कक्ष है, जो दोहरे स्तंभों की पंक्तियों से बने मेहराब से खुला है। इस केंद्रीय कक्ष के पीछे अपेक्षाकृत ऊंचे आधार पर एक आयताकार गलियारा है, जिसकी छत ढोलाकार है। केंद्रीय कक्ष के दोनों पार्श्वों में बरामदा युक्त आयताकार कक्ष है, जो कई छोटे-छोटे कक्षों में व्यवस्थित है। पूर्व की ओर से एक ढलवां रास्ता भवन की छत को जाता है, जहां पुनः एक वेदिका युक्त केंद्रीय कक्ष है, जिसके दोनों पार्श्वों में दो स्तम्भयुक्त दालान बने हैं। ऊपरी मंजिल के पिछले हिस्से में जालीदार संकरा गलियारा है। यह भवन रानियों के आवास के लिए बनाया गया था। मुख्य भवन के दोनों तरफ बरामदा युक्त साधारण भवन है। इनमें से पूर्वी भाग दो मंजिला है। हरदेव भवन के सामने स्थित उद्यान पूरी तरह से निजी उपयोग के लिए था और स्त्रियों के निवास के लिए अनुकूल था।
किशन भवन
परिसर के दक्षिणी भाग में स्थित इस महत्त्वपूर्ण भवन का 8.84 मीटर ऊंचा मुखभाग पांच उत्कृष्ट नक्काशी वाले मेहराब युक्त द्वारों तथा सामने तेरह फव्वारों वाले ताल से सुसज्जित है। मेहराब युक्त दरवाजे से भवन के अंदर एक विशाल कक्ष में प्रवेश किया जाता है, जो बहुत हद तक गोपाल भवन के मुख्य कक्ष के समान है। विशाल कक्ष के दोनों तरफ दो-दो कमरे बने हैं। पीछे एक लंबा और ऊंचा गलियारा है, जो एक छोटे अर्द्ध दसभुजीय भवन तक पहुंचता है। किशन भवन के दक्षिणी हिस्से की सपाट छत के ऊपर एक मेहराब युक्त सुंदर दीर्घा है। यह दीर्घा बाद में 1826 ईसवी से 1853 ईसवी तक भरतपुर के महाराजा रहे बलवंत सिंह ने बनवाई थी।
केशव भवन
यह भवन एक वर्गाकार दीर्घा है जो 18×18 वर्ग मीटर के आकार में है। यह रूपसागर के किनारे पर है। इसके दूसरी ओर उद्यान है। संतुलित ऊंचाई वाले केशव भवन के प्रत्येक ओर पांच मेहराब बने हैं जो इसमें रोशनी और सौंदर्य में वृद्धि करते हैं। इमारत के अंदरूनी भाग की व्यवस्था वर्षा ऋतु का रूमानी अहसास पैदा करता है। भवन के चारों ओर बनी मेहराबों की श्रृंखला इसका अंदरूनी वर्गाकार भाग बनाती है, जो लगभग 1.91 मीटर चौड़ाई वाले नहर द्वारा अपने बाह्य भाग से अलग है। नहर के मध्य में बड़े फव्वारों के अतिरिक्त इसके पार्श्वों में भी छोटे-छोटे जेट लगे हैं। बाह्य रूप से ज्यादा प्रभावी न होते हुए भी इसकी छत भी द्विसतही है। इस व्यवस्था का उपयोग बादलों की गड़गड़ाहट के कृत्रिम प्रभाव को पैदा करने के लिए किया गया है। निचली छत जो वस्तुतः एक नहर ही है, में पानी की संतुलित धार व उससे रगड़ खाते पाषाण गोलों द्वारा ऐसा ध्वनि भ्रम पैदा किया जाता था। छत से निकलते नलों द्वारा मेहराबों के ऊपर से गिरने वाला पानी बारिश का पूरा वातावरण बना देता था।
नंद भवन
यह एक शानदार आयताकार भवन है जो एक प्रेक्षागृह की भांति जान पड़ता है। इसका आकार 45×26 वर्ग मीटर का है। यह अपने लम्बाई के पार्श्वों में सात मेहराब युक्त द्वारों से खुला है और चौड़ाई के पार्श्वों में छोटे दीर्घाओं से युक्त है। इमारत के अंदर, बाहरी भुजाओं का अनुसरण करती हुई मेहराब की एक समांतर श्रृंखला, इस विशाल कक्ष को बाह्य व आंतरिक दो भागों में बांट देती है। संगमरमर की बनी तीन-तीन दीर्घाएं विशाल कक्ष के सामने स्थित हैं जिन पर अर्द्धमूल्यवान पत्थरों से पच्चीकारी की गई है। ऐसी ही पच्चीकारी दीर्घाओं के सामने नीचे स्थित फव्वारों के ताल में की गई है। केंद्रीय भाग की छत के भीतरी सतह में प्रयुक्त लकड़ी से ऐसा प्रतीत होता है कि वास्तुकार इसे दिल्ली के दीवान-ए-खास का रूप देना चाहते थे। इस भाग की छत लकड़ी के धरणों पर ही आधारित थी जो 1867 ईसवी में गिर गई। लोहे की शहतीरों से इसका पुनर्निर्माण किया गया।
पुराना महल
रूप सागर के दक्षिण में एवं डीग भवन परिसर से लगा हुआ बदन सिंह द्वारा निर्मित बाह्य रूप से मजबूत और प्रभावोत्पादक है। आयताकार योजना में स्थित यह भवन आंतरिक रूप में दो आंगन व उसके चतुर्दिक विशाल व लघु कक्षों तथा गलियारों में व्यवस्थित है। चारित्रिक रूप से यद्यपि यह कम विशुद्ध, परन्तु स्थापत्य की दृष्टि से अन्य भवनों से कहीं अधिक प्रभावी है। सामान्यतः दो मंजिला यह भवन स्थापत्य को प्रभावी बनाने हेतु कहीं-कहीं तीन मंजिला भी है। बाह्य सौंदर्य की दृष्टि से इसकी छतरियों व ढलवां छतों का संतुलित नियोजन निसंदेह प्रशंसनीय है।
शीश महल
शीश महल का निर्माण महाराजा सूरजमल के पुत्र नवल सिंह ने कराया था। नवल सिंह ने डीग के निकट राम बाग में एक अन्य महल का निर्माण भी कराया था। अब लगभग ध्वस्त हो चुका शीश महल, पुराना महल के नजदीक स्थित है, रूप सागर से अपनी सम्बद्धता के कारण प्रभावी दृश्य उपस्थित करता है। इसकी अन्य विशिष्टताओं में कतिपय स्तंभों व मेहराबों को छोड़कर कुछ भी उल्लेखनीय नहीं है। कभी इस इमारत से हमाम जुड़े थे और उनकी सजावट के लिए उनमें कांच के प्रयोग हुआ था, जिसके कारण इस इमारत को शीश महल का नाम दिया गया।
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