पिछले भागों में हमने ब्रजमंडल के किसानों की स्वाधीनता की प्रवृत्ति से उपजे मुगल सत्ता के विरोध के प्रमुख नायक बने गोकुला और राजाराम के बारे में जाना। अब आगे :
राजाराम के पुत्र जोरावर ने संभाला नेतृत्व
राजाराम की मृत्यु के बाद विद्रोही संगठन की कमान उसके बड़े पुत्र जोरावर ने संभाली। जोरावर का मार्गदर्शन व देखरेख का जिम्मा उसके बाबा भज्जा सिंह ने लिया। राजाराम के दूसरे पुत्र फतह सिंह ने कृषि कार्य संभाल लिया और पैंघोर को अपना निवास बनाया। जोरावर अपने पिता की तरह एक कुशल योद्धा और सेनानायक नहीं था फिर भी उसे अपने पिता का सैन्य दल विरासत में मिला था। हालांकि उस समय यह सैन्य दल हताश और कमजोर स्थिति में था। राजाराम और रामकी चाहर की मृत्यु के बाद सिनसिनवार, सोगरिया और खुंटेल संगठन कमजोर हो गए थे। सिनसिनवार जमींदार और किसान भी सिनसिनी की गढ़ी के अंतर्गत तीस गांवों में केंद्रित हो गए थे। ये लोग नरूका कछवाहा, राजपूत, मेव, गूजर, जाट व अन्य के साथ निरन्तर संपर्क बनाए रहे ताकि मुगल शासन की केंद्रीय सेनाओं के साथ मुकाबले में इनका सहयोग मिल सके। उधर मुगल शासक औरंगजेब की मंशा इस विद्रोह को जल्द से जल्द समाप्त करने की थी।
महाराज बिशन सिंह की जाट अभियान पर नियुक्ति
मुगल शासन की ओर से औरंगजेब का पोता बेदारबख्त अभियान का नेतृत्व संभाल रहा था। उधर आमेर के महाराज राम सिंह की मृत्यु हो गई, नवयुवक कुंवर बिशन सिंह उस समय काबुल के मोर्चे पर तैनात था। औरंगजेब ने बिशन सिंह को आठ मई 1688 ईसवी को कुंवर बिशन सिंह को राजा की उपाधि देकर उसे राजाराम के खिलाफ अभियान पर जाने का आदेश भेजा। जुलाई 1688 में राजाराम की मृत्यु के बाद अगस्त 1688 में बिशन सिंह मथुरा आ पहुंचा। उसने अपनी वतन जागीर से दस हजार घुड़सवार और बीस हजार पैदल सिपाहियों की एक फौज साथ ली और जाट विरोधी अभियान पर आगे बढ़ा। साम्राज्यवादी सेनाओं का इरादा सिनसिनी की गढ़ी पर अधिकार करने का था पर यह कार्य देखने में जितना आसान लगता था उतना आसान नहीं था। सिनसिनी के मैदानी दुर्ग के चारों और दलदली इलाका था और सघन वन क्षेत्र था। यही नहीं सिनसिनी के चारों ओर उसकी रक्षापंक्ति में पैंघोर, कासोट, सोगर, अबार, रारह, पींगौरा, सौंख, साबौरा, रायसीस, भटावली, चैकोरा, गारू, सौंखर-सौंखरी आदि की ग्राम गढ़ियाँ बनी हुईं थीं। इन छोटी पर मजबूत गढ़ियों पर अधिकार किये बिना सिनसिनी की गढ़ी तक पहुंचना सम्भव नहीं था। राजाराम के मरने के बाद मुगल व कछवाहा सेनाएं जाट गढ़ियों को घेरने चल पड़ीं।
सौंख-महावन का युद्ध (सितंबर 1688 से जनवरी 1689)
मथुरा से सिनसिनी के रास्ते में सौंख की गढ़ी एक मजबूत गढ़ी थी जिस पर अधिकार किये बिना आगे बढ़ना सम्भव नहीं था। सौंख की यह गढ़ी खूंटेल जाटों के अधिकार में थी। मुगल सेनाओं ने सितंबर 1688 में सौंख की गढ़ी पर घेरा डाला। हरीसिंह खंगारौत महाराज बिशन सिंह का अतालिक यानी अभिभावक था। बेदारबख्त ने हरीसिंह को सौंख छावनी में रसद पहुंचाने, होडल से फरह तक राजमार्ग की सुरक्षा करने तथा महावन के जाटों पर नजर रखने का दायित्व सौंपा। बरसात का मौसम होने के कारण रसद पहुंचाना बेहद मुश्किल कार्य था, ऊपर से जाट टुकड़ियों के गुरिल्ला हमलों से रसद की सुरक्षा करना भी आसान नहीं होता था। हरीसिंह खंगारौत इधर से उधर भागता रहा और अपने हिस्से का काम करता रहा। उधर महावन के जाट जमींदारों ने भी युद्ध छेड़ दिया, जिससे अभियान दो हिस्सों में बंट गया। आखिरकार दिसम्बर 1688 आते-आते इन्हें सौंख की गढ़ी को खाली कराने में सफलता मिल गई। उधर महावन में भी स्थिति नियंत्रण में आ गई जिसके बाद सिनसिनी को लक्ष्य बनाकर अभियान आगे बढ़ा।
सिनसिनी का घेरा
बेदारबख्त 1689 ईसवी की शुरुआत में अपनी विशाल मुगल सेना, मेवात तथा अन्य फ़ौजदारों की सेना के साथ सिनसिनी की ओर बढ़ा। इस सेना में विशाल मुगल तोपखाना, कुशल व अनुभवी तोपची, बंदूकधारी सवार, धनुषधारी सवार व पैदल सिपाही शामिल थे। इस अभियान में राजा बिशन सिंह स्वयं दस हजार सवार व बीस हजार पैदल राजपूतों के साथ शामिल था। इन्होंने सिनसिनी से दस मील पहले अपनी छावनी डाली। यह गढ़ी भयंकर जंगल, दलदली प्रदेश तथा जाट गढ़ियों से रक्षित थी। यह अभियान मुगल सेनाओं के लिए बेहद मुश्किल भरा और खर्चीला था। सबसे ज्यादा मुश्किल था मथुरा से मुगल सेना की छावनी तक रसद पहुंचाना। यह रसद मथुरा से सौंख-कुम्हेर के रास्ते पहुंचाई जाती थी पर जाट सैनिकों ने इस मार्ग को काट दिया था। वहीं कामां-पहाड़ी की ओर के मार्ग पर भी जाट सैनिकों का अधिकार था। ऐसे में कई बार तो मुगल सेना खुद को अपनी छावनी में घिरा हुआ महसूस करती थी। उस पर चारों ओर से जाट सैनिकों के गुरिल्ला हमले का डर बना रहता था, जो थोड़े ही समय में बड़ा नुकसान कर देते थे।
जाट सैनिकों का गुरिल्ला युद्ध
सिनसिनी का घेरा करीब चौदह महीने तक चला। इस दौरान जाट टुकड़ियों ने छापामार गुरिल्ला युद्ध करके मुगल सेनाओं को बड़ी क्षति पहुँचाई। इन छापामार अभियानों से मुगल सेना की गति शिथिल होकर रह गई और उन्हें आगे बढ़ने में बहुत अधिक समय लगा। जाट टुकड़ियां रात में मुगल छावनी पर धावा बोल देतीं थीं, और मुगल रक्षक सिपाहियों के आने से पूर्व ही लूटमार करके भाग जाती थीं। दिन के समय जाट सैनिक शत्रु की छावनी तक आने वाली रसद व पानी की बैलगाड़ियों तक को लूट लेती थीं। इससे मुगल सेना की नाक में दम हो गया। शाही छावनी में रसद पहुंचाना एक बड़ी समस्या बन गई थी। 21 जून 1689 ईसवी को हरिसिंह अपनी कमान में एक दक्ष योद्धा सेना के साथ अन्न, घोड़ा और शहजादे को आगरा से प्राप्त एक शाही खेमा लेकर रवाना हुआ। जब वह गोवर्धन के पास पहुंचा तो कासोट के जाट सरदार बुकना के भाई की कमान में छापामार टुकड़ियों ने जंगल और टीलों की ओट लेकर छापा मारना शुरू किया। इस मुठभेड़ में क्रांतिकारियों के सरदार समेत तीस साथी शहीद हुए वहीं कछवाहा सेनापति के सैकड़ों सिपाही काम आए, पर वह रसद पहुंचाने में सफल रहा। इसी तरह सितंबर 1689 ईसवी में बख्तावर सिंह भदौरिया और हरिसिंह अपनी कमान में अडींग तथा गोवर्धन होकर विशाल रसद दल लेकर रवाना हुए। जब ये लोग गांठोली के समीप पहुंचे तो क्रांतिकारी छापामारों ने पीछे से धावा बोल दिया। इस संघर्ष में दोनों पक्षों को नुकसान हुआ। रसद दल ने धीरे धीरे अऊ गांव की ओर कूच किया जहां उसे रास्ते भर छापामारों का सामना करना पड़ा।
छावनी डाले हुए धीरे धीरे आठ महीने हो गए थे और स्थिति यह थी कि मुगल सेनानायक छावनी से बाहर निकलते हुए भी डरते थे।
सिनसिनी की गढ़ी पर प्रथम आक्रमण
जनवरी 1690 की शुरुआत तक मुगल सेनाएं सिनसिनी गढ़ी के ठीक सामने तक जा पहुंचीं। वहां उन्होंने जंगल साफ कर अपनी छावनी डाली मिट्टी के ऊंचे मचान बना कर तोपखाना लगाया। गढ़ी को उड़ाने के लिए एक गुप्त सुरंग खोदी गई जिसके अंदर बारूद से भरी बोरियां रखकर विस्फोट करना था। लेकिन क्रांतिकारियों को इस सुरंग के बारे में पता चल गया और उन्होंने रात के अंधेरे में इस सुरंग का मुंह मिट्टी और बड़े बड़े पत्थरों से मजबूती से बंद कर दिया। सुबह जैसे ही मुगल तोपचियों ने बारूद में पलीता लगाया, एक भयंकर विस्फोट हुआ और सुरंग का मुंह बंद हो जाने के कारण गढ़ी का द्वार नष्ट होने से बच गया और बारूद व पत्थरों की उल्टी मार से सुरंग की छत उड़ गई। जिसके कारण मुगल सैनिक दस्ते, तोपखाना और कई सेनानायक धमाके से उड़ गए। इस विफलता के बाद मुगल सेना ने फिर से हमले की योजना बनाना शुरू कर दिया।
सिनसिनी की गढ़ी का पतन
एक महीने से भी कम समय में मुगल सेना ने एक बार फिर से सुरंग खोद कर तैयार की। इस बार यह काम बेहद गोपनीयता से किया गया। जनवरी के अंत में एक दिन सुरंग में बारूद भर कर धमाका किया गया। भयंकर विस्फोट के कारण गढ़ी का एक परकोटा उड़ गया। विस्फोट शांत होने के बाद मुगल सेना ने गढ़ी में प्रवेश किया। गढ़ी के सैनिकों ने तीन घंटे तक संघर्ष किया। अंत में सिनसिनी की इस गढ़ी पर मुगलों का अधिकार हो गया। जाट सरदार जोरावर और उसका परिवार मुगलों के हाथ लग गया। उन्हें गिरफ्तार कर मथुरा ले जाया गया, जहां से उन्हें दक्षिण में ले जाकर औरंगजेब के सामने पेश किया गया। औरंगजेब ने निर्दयता पूर्वक उनकी हत्या करा दी। इस विजय के बदले औरंगजेब ने शहजादे बेदारबख्त को बड़े पुरस्कार दिए। महाराजा बिशनसिंह के मनसब में भी वृद्धि की और उसे मथुरा की सूबेदारी भी दी गई। सिनसिनी की गढ़ी का प्रबंध राय उग्रसेन कछवाहा को सौंपा गया।
क्रांतिकारियों की अन्य गढ़ियों का पतन
सिनसिनी की गढ़ी के पतन के बाद क्रांतिकारी शक्ति को बड़ी ठेस लगी। विजय से उत्साहित मुगल सेना ने सोगर की गढ़ी, अवार की गढ़ी, कासौट की गढ़ी, पींगौरा की गढ़ी, सौंख गूजर की गढ़ी, रायसीस की गढ़ी, भटावली की गढ़ी, रारह की गढ़ी और चैकोरा की गढ़ी समेत तमाम गढ़ियों पर अधिकार किया। यह प्रक्रिया बेहद धीमी रही और इस सब में छह सात साल का समय लग गया। वहीं क्रांतिकारियों के नेतृत्व की जिम्मेदारी अब भज्जा के भाई ब्रजराज के पुत्र चूरामन के हाथों में थी।
(अगले भाग में जारी …)
(विशेष : यह कहानी ठाकुर देशराज, कालिका रंजन कानूनगो, उपेन्द्रनाथ शर्मा आदि इतिहासकारों की पुस्तकों में दिए गए तथ्यों पर आधारित है।)
डिस्क्लेमर : ”इस लेख में बताई गई किसी भी जानकारी/सामग्री में निहित सटीकता या विश्वसनीयता की गारंटी नहीं है। हमारा उद्देश्य महज सूचना पहुंचाना है, इसके उपयोगकर्ता इसे महज सूचना के तहत ही लें।”
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