कहने को तो इस लेखमाला को भरतपुर की कहानी का नाम दिया गया है पर इसकी शुरुआत भरतपुर नगर और भरतपुर रियासत के बनने से काफी पहले हो जाती है। ब्रज क्षेत्र की किसानों का बड़ा हिस्सा सल्तनत/मुगल काल में सरकारी कर्मचारियों की अवहेलना करता रहा और अपनी स्वातंत्र्य भावना का परिचय देता रहा। अगर कोई उत्पीड़न धार्मिक आधार पर किया गया तो उसका जमकर प्रतिरोध किया। प्रतिरोध करते-करते एक समय ऐसा भी आया जब इनकी शक्ति इतनी बढ़ गई कि यहां से निकलने वाले मार्गों पर इनका इतना प्रभाव हो गया कि मुगलों के अधिकारी भी वहां से गुजरने से डरने लगे। दरबारी इतिहास लेखकों ने इन लोगों को लुटेरा और राहजनी करने वाला तक लिख दिया। पर सच कुछ और था स्वातंत्र्य प्रेम की भावना इतनी बलवती थी कि इन्हें ब्रज प्रदेश से मुगलों को पूरी तरह बाहर करने से कम कुछ स्वीकार नहीं था। लिखने को तो यह प्रस्तावना बहुत बड़ी लिखी जानी चाहिए पर फिलहाल कहानी शुरू करते हैं। प्रस्तावना बीच-बीच में आती रहेगी।
भरतपुर की कहानी भाग एक
ब्रज क्षेत्र में कायम जाट जमींदारियां
बात है सल्तनत काल और उसके कुछ समय बाद की, (पंद्रहवीं शताब्दी का समय माना जा सकता है) जब हरियाणा और राजपूताना से निकल कर जाट जाति के लोग बड़ी संख्या में आगरा और दिल्ली के मध्य भाग में आकर बसने लगे। इनमें से अधिकांश सीधे-सादे और परिश्रमी किसान थे। इन्होंने अपनी मेहनत और कार्यकुशलता के बल पर शीघ्र ही सुल्तानों और बादशाहों से इस क्षेत्र की ज्यादातर जमींदारियां हासिल कर लीं। कोइल (वर्तमान अलीगढ़), नौहझील, जलेसर और मांट में नौहवार गोत्र के जाटों का प्रभाव कायम हो गया। महावन में पचहरा, कुंतल, रावत, गोधरा व डागर गोत्री जाट प्रभावशाली हो गए। फरह, फतहपुर सीकरी व मथुरा में भी अन्यान्य गोत्री जाट परिवार या बसे। सोलहवीं शताब्दी के अंत में सरदार माखन सिंह के नेतृत्व में बीकानेर से आकर ठेनुआं गोत्री जाट आये जिन्होंने जावरा और टप्पल के इलाकों पर अपनी जमींदारी कायम कीं। माखनसिंह ने राया क्षेत्र के प्रभावशाली खोखन गोत्री जाटों से वैवाहिक संबंध स्थापित कर अपनी स्थिति मजबूत की और देखते ही देखते वह जावरा परगना के 87 गांवों की जागीर का स्वामी हो गया। टोडाभीम, हिण्डौन, बयाना, उच्चैन, पहरसर, सौंखर-सौंखरी, कठूमर, खानुआ, नौनेरा, कामां, पहाड़ी और खोह आदि क्षेत्रों पर सिनसिनवार, सोगरिया, कुंतल, चाहर व हगा डूंगों के जाट जमींदार काबिज हो गए।
शुरुआत के संघर्ष
शुरुआत में सब शांतिपूर्ण रहा और दिल्ली के शासक को उसका राजस्व इन लोगों द्वारा दिया जाता रहा। पर बीच-बीच में इनका प्रतिरोध भी दिखता रहा। सन 1540 ईसवी में जब बिलग्राम के युद्ध में पराजित हुमायूं जब आगरा से रेवाड़ी के रास्ते भागा तो मार्ग में पड़ने वाले सिनसिनवार, सोगरिया व कुंतल डूंग के जाट जमींदारों ने उसके लश्कर से लूटपाट की। इस घटना में लूट भले ही दिख रही है पर वस्तुतः यह एक शुरुआत थी जब यह जाट जमींदार एक किसान की भूमिका से ऊपर उठकर तत्कालीन राजनीति में अपना एक मुकाम बनाना चाह रहे थे। हालांकि उस समय तक इनकी ताकत कम थी और एक राजनीतिक इकाई बनने के लिए इन्हें अभी सदियों का इंतजार करना था।
शाहजहाँ की नीतियों से बढ़ा आक्रोश
अकबर व जहांगीर का काल काफी हद तक शांतिपूर्ण रहा। पर जहांगीर की मृत्यु के बाद जब शहजादा खुर्रम अपने दूसरे दावेदारों की हत्या कर अपनी बादशाहत का मार्ग प्रशस्त करने में लगा था, तब महावन क्षेत्र के जाट किसान संगठित होकर क्षेत्र में लूटपाट कर केंद्रीय सत्ता को चुनौती देने लगे। पर जब शहजादा खुर्रम शाहजहाँ के नाम से गद्दी पर बैठा तो उसने इस विद्रोह को दबाया। अप्रैल 1628 ईसवी में शाहजहाँ ने कासिम खाँ किजवीनी को महावन के विद्रोह का दमन करने के लिए रवाना किया। साथ ही उसने आमेर के नवयुवक शासक मिर्जा राजा जयसिंह को भी किजवीनी की सहायता के लिए भेज दिया। दो बड़े मुगल सेनापतियों की सेनाओं ने महावन का विद्रोह जल्द ही दबा दिया। पर क्रांति की चिनगारी सुगल ही गई थी तो वह कैसे बुझ सकती थी!
एक खास बात तो बताना ही भूल गया!
ये जाट जमींदार भले की किसान की भूमिका से ज्यादा नहीं थे पर सुरक्षा और सामरिक नजरिये से इन्होंने अपने गांवों में गढ़ियां बनाना पहले से ही शुरू कर दिया था। उस समय बनाई गई ज्यादातर गढ़ियाँ भले ही कच्ची यानी मिट्टी की रही हों पर कालांतर में इन्हीं कच्ची गढ़ियों ने ही लोहागढ़ जैसे विशाल और मजबूत दुर्ग का रास्ता प्रशस्त किया था!
शाहजहां की नवीन भूमि व्यवस्था से भड़क उठा विद्रोह
शाहजहां जब गद्दी पर बैठा तो उसने शासन की नीति की उदारता के रास्ते से हटाकर मुस्लिम परस्त नीति का अनुसरण करना शुरू किया। उसने अपने सहयोगी मुस्लिम सरदारों को उपकृत करने के लिए खालसा की भूमि पर मनसब बनाकर उन्हें मनसबदार बना दिया। खालसा की भूमि पर कृषि कर रहे जमींदारों और बादशाह के बीच मनसबदारों के आने से किसानों पर कर का अतिरिक्त बोझ पड़ा। इसके कारण किसान विद्रोह पर उतर आए और उन्होंने लूटपाट शुरू कर दी। इस बार विद्रोह का केंद्र बना सिनसिनी क्षेत्र, जहां की डूंग पंचायत के सरदार रोरिया सिंह के नेतृत्व में विद्रोह शुरू हुआ। मथुरा, गोकुल, महावन, कामां, पहाड़ी, खोह, हिण्डौन आदि क्षेत्रों के किसान, मजदूर सब लामबंद हो गए। इन क्षेत्रों के जाट, मेव, गूजर, राजपूत सभी विद्रोह में शामिल हुए। शाहजहाँ ने इस विद्रोह को कठोरता से दबाने के लिए मुर्शिद कुली खां तुर्कमान को मथुरा, महावन, कामां और पहाड़ी परगनों का फौजदार बना कर भेजा।
मुर्शिद कुली खां के अत्याचार
मुर्शिद कुली खां तुर्कमान एक बड़ी सेना के साथ मथुरा पहुंचा। उसने अपने सैन्य बल की सहायता से विद्रोह को दबाना शुरू किया और धीरे-धीरे गांवों में अपनी चौकियां स्थापित करनी शुरू कीं। मुर्शिद कुली खां एक नीच प्रवृत्ति का व्यक्ति था। वह अत्यंत कामुक था और उसकी दृष्टि अबला स्त्रियों को शिकार बनाने की रहती थी। जब वह गांवों में विद्रोहियों के दमन के लिए जाता था तो वहां मिलने वाली सुंदर स्त्रियों का अपहरण कर अपने हरम में ले जाता था। गोकुल के मेले से सुंदर हिन्दू कन्याओं का अपरहण करके नाव में बिठा कर आगरा की ओर ले जाने के उसके अधम कारनामे तो इतिहास की हर पुस्तक में लिखे मिल जाएंगे। मुर्शिद कुली खां की इन हरकतों ने आम हिन्दू जनमानस को आक्रोशित कर दिया। ब्रजमंडल के लोग उसके खून के प्यासे हो गए और सन 1638 ईसवी में सम्भल में जटवाड़ की गढ़ी पर युद्ध के दौरान स्वाभिमानी क्रांतिकारियों ने रात में सोते समय उसका कत्ल कर दिया।
हिण्डौन परगने के विद्रोह (1637-40)
मुर्शिद कुली खां की हत्या के बाद विद्रोह कर रहे किसानों के हौसले और बढ़ गए। हिण्डौन परगना के जाट, गूजर, मीणा और जादों राजपूत किसानों ने खालसा की भूमि का लगान देना बंद कर दिया। इस पर जून 1637 में शाहजहाँ ने आमेर के राजा जयसिंह को फरमान भेजा कि वह हिण्डौन क्षेत्र के विद्रोह का दमन करे। जयसिंह ने तत्काल हिण्डौन के विद्रोह को दबाने का कार्य शुरू कर दिया। जयसिंह के दबाव में किसानों ने लगान जमा कर दिया। इससे यह विद्रोह उस समय तो दब गया पर चिनगारी सुलगती रही। अप्रैल 1640 में शाहजहाँ ने जयसिंह को हिण्डौन के करोड़ी सागरमल की सहायता के लिए नियुक्त किया। मुगल राजस्व व्यवस्था में करोड़ी एक अधिकारी का पद हुआ करता था, जो एक करोड़ के राजस्व पर नियुक्त होता था।
नए फौजदार इरादत खां की नियुक्ति
शाहजहाँ ने वर्ष 1642 ईसवी में इरादत खां को मथुरा, महावन, कामां और पहाड़ी के परगनों का फौजदार नियुक्त करके भेजा। इरादत खां अपनी सेनाओं के साथ पहुंचा और उसने शांति स्थापित करना शुरू किया। यह व्यक्ति अपने पूर्ववर्ती मुर्शिद कुली खां की तुलना में योग्य था। वह उदार और नैतिक था साथ ही उसमें कामुकता और धर्मांधता भी नहीं थी। वह आंख दिखा के या धमकी देकर काम निकालने में विश्वास करता था जिसके कारण वह यहां के क्रांतिकारी किसानों को बस में रख पाने में सफल हुआ। इरादत खां का चार वर्ष का कार्यकाल (1642-46) शांतिपूर्ण रहा। पर यह शांति तात्कालिक ही थी अभी तो संघर्षों की लंबी श्रृंखला शुरू होनी शेष थी।
कामां, पहाड़ी और खोह के विद्रोह (1649-51)
इस विद्रोह का नेतृत्व किया रोरिया सिंह के पौत्र मदू ने। मदू को महीपाल भी कहा जाता था। महाकवि सूदन इसे ‘शाह का उरसाल’ यानी शाहजहाँ के हृदय का कांटा भी लिखता है। इससे महीपाल की महत्ता का अनुमान किया जा सकता है। महीपाल ने सिनसिनी मौजा का ठाकुर (मुखिया) पद प्राप्त करते ही शाही फौजदार और करोड़ी का विरोध शुरू कर दिया। उसने अपने चाचा सिंघा के नेतृत्व में एक संगठन बनाया। कामां, पहाड़ी और खोह क्षेत्र के खानजादों मेव, जाट, गूजर व अन्य साहसी युवकों को साथ लेकर आगरा और दिल्ली के बीच शाही रास्तों पर आने-जाने वाले काफिलों और व्यापारियों को लूटना शुरू कर दिया। इनका प्रभाव इतना बढ़ गया कि शाही मार्ग बंद हो गए। शाहजहाँ ने इस विद्रोह को दबाने के लिए एक बार फिर आमेर के राजा जयसिंह को भेजा। इतना ही नहीं सितंबर 1650 ईसवी में बादशाह ने राजा जयसिंह के पुत्र कीरत सिंह को कामां, पहाड़ी और खोह के परगने जागीर के रुप में दे दिए। इन परगनों का राजस्व चार लाख 76 हजार रुपये था।
एक वर्ष के संघर्ष के बाद स्थापित हुई शांति
विद्रोह को दबाने में मुख्य भूमिका रही राजा जयसिंह, कुवंर कीरत सिंह व कल्याण सिंह नरूका की। चार हजार घुड़सवार, छह हजार पैदल बंदूकची या धनुर्धारी, जंगलों को साफ करने वाले बेलदारों को साथ लेकर यह अभियान शुरू हुआ। चारों ओर फैले हुए सघन जंगलों को साफ किया गया। इन जंगलों में छिपकर क्रांतिकारी लूटमार किया करते थे। उनकी कच्ची गढ़ियों को गिराया गया। एक वर्ष के लंबे संघर्ष के दौरान असंख्य मेव, खानजादों, गूजर और जाट खेत रहे या बंदी बनाये गए। झुंड के झुंड किसान अपनी भूमि छोड़कर भाग गए। जयसिंह ने शांति बनाने के लिए कल्याण सिंह नरूका के नेतृत्व में कछवाहा परिवारों को लक्ष्मणगढ़ व कठूमर क्षेत्र में बसाया। कल्याण सिंह को माचेड़ी, राजगढ़ व राजपुर की जागीर दी गई। कीरत सिंह को मेवात का फौजदार बनाया गया। कामां, पहाड़ी व खोहरी के परगने स्थाई रूप से कीरत सिंह व उसके परिवार के हाथ में चले गए। कीरत सिंह ने कामां में अपना स्थाई आवास बनाया। वहां पर उसने विशाल महल, दुर्ग, मन्दिर तथा बगीचों का निर्माण कराया। विमल कुंड के घाटों की मरम्मत कराई। नंदगांव व बरसाना में भी राजपूतों को जागीर दी गईं।
वजीर सादुल्ला खां ने बसाया सादाबाद
कुछ वर्ष तक अव्यवस्था की गाड़ी मंद गति से चलती रही। सिंघा को गढ़ी गिरसा को छोड़कर भागना पड़ा। उसने यमुनापारी जाटों के यहां जाकर शरण ली। वर्ष 1654 आते-आते शाहजहाँ के शासन का प्रबंध उसका ज्येष्ठ पुत्र दाराशिकोह संभालने लगा। इससे मुगल शासन की नीति में उदारता झलकने लगी। मथुरा का परगना भी दाराशिकोह की जागीर में दे दिया गया। नम्र स्वभाव का दाराशिकोह हिन्दू धर्म के प्रति सहानुभूति रखता था जिसके कारण ब्रजमंडल में शांति स्थापित हुई। वजीर सादुल्ला खां भी बड़ा आलिम, होशियार, खैरख्वाह और नेक चलन का था। उसे गोकुल की खालसा भूमि जागीर में दी गई। सादुल्ला ने जाट बहुत गांवों के मध्य सादाबाद नामक अपनी नई छावनी स्थापित की। टप्पा, जावरा, जलेसर, खंदौली व महावन के करीब 80 गांव सदबाद परगने में शामिल किए गए। सादाबाद परगने में रह कर भी जाट परिवार पूर्ण स्वतंत्र रहे और उन्होंने अपनी सुरक्षा के लिए नवीन गढ़ियाँ बनाईं।
(अगले अंक में जारी…)
(विशेष : यह कहानी ठाकुर देशराज, कालिका रंजन कानूनगो, उपेन्द्रनाथ शर्मा आदि इतिहासकारों की पुस्तकों में दिए गए तथ्यों पर आधारित है।)
डिस्क्लेमर : ”इस लेख में बताई गई किसी भी जानकारी/सामग्री में निहित सटीकता या विश्वसनीयता की गारंटी नहीं है। हमारा उद्देश्य महज सूचना पहुंचाना है, इसके उपयोगकर्ता इसे महज सूचना के तहत ही लें।”
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