अँधेरे में लोकतंत्र : आपातकाल का साहित्यिक दस्तावेज़- डॉ. धर्मराज

भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में आपातकाल वह कालखंड है, जिसे अंधकार, दमन और भय का पर्याय माना जाता है। यह केवल एक राजनीतिक निर्णय नहीं था, बल्कि जनजीवन, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और नागरिक अधिकारों पर सीधा आघात था। उस समय पूरा राष्ट्र जैसे सन्नाटे के कारागार में क़ैद कर दिया गया था। अख़बारों की सुर्खियों पर सेंसर की कैंची चल रही थी। कवि और लेखक अपनी अभिव्यक्ति को दबाने को विवश थे, और आम नागरिकों की साँसें भी सशंकित-सी लगती थीं। इसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित है रवि खंडेलवाल की सातवीं कृति “अँधेरे में लोकतंत्र”। यह संकलन केवल साहित्यिक रचना नहीं, बल्कि उस दौर का जीवंत दस्तावेज़ है, जिसमें कविता, नवगीत और ग़ज़ल के माध्यम से आपातकाल की त्रासदी, विद्रूपता और प्रतिरोध को स्वर दिया गया है। यह पुस्तक हमें स्मरण कराती है कि साहित्य की असली ताक़त सत्ता के सामने झुकने में नहीं बल्कि अन्याय के विरुद्ध जन-मानस को जगाने में निहित है।

कविता खंड की कविताएँ रूपकों और प्रतीकों के माध्यम से आपातकाल की नृशंसता का जीवंत चित्रण करती हैं- ‘ख़राब मौसम’ कविता की पंक्तियाँ—

“पर निकलते पक्षियों के

काटकर सब पंख

रद्द कर दी हैं सभी उड़ानें

बंद करके घोंसलों के

सख़्त कारावास में”

सीधे-सीधे नागरिक स्वतंत्रताओं पर लगे प्रतिबंधों की ओर संकेत करती हैं। इसी तरह ‘गणतंत्र बनाम गढ़तंत्र’ में कवि रवि कहते हैं –

“मूल अधिकारों का हनन करो

और संविधान में संशोधन करो

रोज़ नई योजनाएँ

काग़ज़ पर गढ़ो।”

यह कविता सत्ता की उस प्रवृत्ति को उजागर करती है, जिसमें लोकतांत्रिक ढाँचे को केवल दिखावे में जीवित रखा गया पर उसकी आत्मा का गला घोंट दिया गया।

‘नवगीत खंड’ में आपातकालीन त्रासदी से सम्बंधित गीत, लोकधुन और जनभाषा के माध्यम से सामने आते हैं। वर्ष’76 का नवगीत कहता है

“लो कल सा बीत गया

एक और साल

चिंता में गुज़रे दिन

कैसे गल पाएगी दाल

बदलीं तो बस केवल

तारीखें बदल गईं

बदले ना मेजपोश, पिनकुशन

और ये माथ की शिकन।”

यहाँ सतही बदलाव की पोल खुल जाती है। जनता की समस्याएँ जस की तस रहीं और सत्ता केवल तारीख़ें बदलने का उत्सव मनाती रही।

इसी खंड की रचना ‘सोते चेहरे सफ़र हो गए’ में परिवर्तन के बुलडोज़रों का उल्लेख है, जो असल में गरीबों और विस्थापितों पर चला था। वहीं ‘नीला पड़ा शहर’ में कवि लोकतंत्र को “अधकचरा” कहकर उसकी खोखली स्थिति पर करारा व्यंग्य करते हैं।

ग़ज़ल खंड में रवि खंडेलवाल का शिल्प और भी नुकीला हो उठता है। यहाँ कम शब्दों में। वो गहरी चोट करते दिखाई देते हैं। पहली ग़ज़ल का शेर –

“इस क़दर बन्दिश लगी घबरा गए

आदमी से आदमी कतरा गए।”

उस भयावह वातावरण की झलक है, जब इंसान, इंसान से भी कतराने लगा था। तीसरी ग़ज़ल में वे लिखते हैं

“होने लगी है आज मुनादी तो देखिए

अभिव्यक्ति पर है रोक लगा दी तो देखिए।”

यहाँ कवि सीधे सवाल करता है कि जिस लोकतंत्र में अभिव्यक्ति पर रोक लग जाए, उसका मूल्य क्या रह जाता है।

ग्यारहवीं ग़ज़ल में भूख और अभाव की त्रासदी सामने आती है –

“आदमी को पेट भर रोटी नहीं है

अस्थि पंजर हैं मगर बोटी नहीं है।”

25वीं और अंतिम ग़ज़ल में कवि यथास्थिति से मुख़ातिब होते हुए ख़ुद को और अवाम को अपने अशआर के माध्यम से कुछ इस प्रकार चेताते हैं –

ये हक़ीक़त भूलने वाली नहीं

अब ग़ज़ल से पूरने वाली नहीं

आप चाहे जितना उद्यम कीजिए

कान पर जूँ रेंगने वाली नहीं

सूर्य की ताक़त नज़रिए बंद है

शक्ति फलने फूलने वाली नहीं

यह पंक्तियाँ बताती हैं कि जब सत्ता संवेदनहीन हो जाए, तब सबसे बड़ी रोशनी भी व्यर्थ हो जाती है। शब्द की शक्ति भी बेमानी हो जाती है। तब शब्द पर लगे पहरों को अर्थ और मौन को अभिव्यक्ति प्रदान करने, चारों ओर व्याप्त सन्नाटे को चीरने और उदासी को तोड़ने के लिएकवि रवि अपनी इसी ग़ज़ल के अंतिम शेर में कह उठते हैं-

आप यदि चीखे न चिल्लाए ‘रवि’

ये उदासी टूटने वाली नहीं

इस प्रकार “अंधेरे में लोकतंत्र” केवल एक काव्य-संग्रह नहीं, बल्कि इतिहास का वह दर्पण है, जिसमें आपातकाल की भयावह परछाइयाँ समानुपातिक रूप से आज भी देखी जा सकती हैं। इसलिए संग्रह बेशक आपातकाल के 50 वर्ष की अवधि पूर्ण करंने पर प्रकाशित हुआ हो इसमें समाहित कविताओं की प्रासंगिकता आज भी विद्यमान है।

कविता में रूपकात्मक तीखापन है, नवगीतों में लोकजीवन की धड़कन है और ग़ज़लों में तंज़ और तल्ख़ सच्चाई की धार है। यह संकलन हमें स्मरण कराता है कि लोकतंत्र केवल एक संवैधानिक व्यवस्था नहीं, बल्कि जनता की स्वतंत्रता और अधिकारों में निहित जीवंत चेतना है। रवि खंडेलवाल जी की यह पुस्तक आने वाली पीढ़ियों के लिए एक सबक है, जब नागरिक मौन हो जाते हैं, तो लोकतंत्र अंधकार में डूब जाता है।

डॉ धर्मराज- Mob. 8273061292

समीक्षित काव्य कृति : अँधेरे में लोकतंत्र

कवि – रवि खंडेलवाल

प्रकाशक : श्वेतवर्णा प्रकाशन

212 A एक्सप्रेस व्यू अपार्टमेंट

सेक्टर 93

नोएडा 201304

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