भगवान श्रीकृष्ण की जन्मभूमि मथुरा नगरी सच में तीन लोक से न्यारी है। आमजन इसकी कहानी को बस श्रीकृष्ण से जोड़कर ही जानते हैं जबकि यह नगरी अपने अतीत में एक विशाल वैभवशाली विरासत को सहेजे हुए है जो श्रीकृष्ण के जन्म से कहीं प्राचीन है। मथुरा की इस अनकही कहानी को लेकर आया है हिस्ट्रीपण्डितडॉटकॉम। यह विस्तृत आलेख लिखा है श्री लक्ष्मीनारायण तिवारी ने। श्री तिवारी ब्रज के इतिहास और संस्कृति के पुरोधा हैं जो अपने कुशल निर्देशन में ब्रज संस्कृति शोध संस्थान (वृन्दावन) का संचालन कर रहे हैं। यह आलेख थोड़ा विस्तृत है अतः इसे यहां किश्तों में प्रकाशित किया जा रहा है। प्रस्तुत आलेख प्राचीन मथुरा की खोज की तीसरी किश्त है।
प्राचीन मथुरा की खोज तीसरी किश्त
प्राचीन मथुरा की नगर निर्माण योजना को समझने के लिए हम भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा सन् 1974-75 में श्री बी० के० धापड़ और श्री मुनीश चन्द्र जोशी के निर्देशन में कराये गये उत्खनन को आधार बना सकते हैं। इस उत्खनन का मुख्य उद्देश्य था प्राचीन मथुरा नगर की चार दीवारी को खोजना।
मिट्टी की दीवार से घिरा हुआ था प्राचीन नगर
अत: इस परियोजना के अंतर्गत मथुरा नगर के लगभग 14 अलग -अलग स्थानों जैसे कंकाली, चामुंडा, महाविद्या, हाथी टीला तथा अम्बरीष टीले आदि पर उत्खनन का कार्य किया गया जिससे यह निर्धारित हुआ कि प्राचीन मथुरा नगर चारों ओर से एक मिट्टी की दीवार (धूल कोट) से घिरा हुआ था। इस दीवार के अवशेष अनेक छोटे बड़े टीलों के रूप में बचे थे। टीलों की यह श्रृंखला मथुरा के गौकर्णेश्वर से प्रारंभ होकर मसानी, चामुंडा, महाविद्या, कटरा केशव देव (श्रीकृष्ण जन्म स्थान) के पीछे से होती हुई कंकाली टीला, कंस का टीला एवं सप्तॠषि टीले से यमुना के किनारे तक चली जाती है। ऐसी दीवार यमुना की ओर भी रही होगी, लेकिन हम समझ सकते हैं कि प्रति वर्ष यमुना में आने वाली बाढ़ ने उसे बहुत पहले ही तबाह कर दिया होगा।
मानव निर्मित थी यह दीवार
उत्खनन से यह ज्ञात हुआ कि इस श्रृंखला के टीले प्राकृतिक नहीं हैं, बल्कि मानव निर्मित हैं। इस दीवार के आसपास की गई खुदाइयों में छठी शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर छठी शताब्दी ईस्वी तक की पुरातात्त्विक सामग्री प्राप्त हुई जिसके विश्लेषण से यह निश्चित होता है कि मथुरा नगर प्रथम शताब्दी के लगभग कुषाण काल में उन्नति के चरम शिखर पर था।
पुराणों में भी वर्णन है इस मिट्टी की दीवार का
इन टीलों की मिट्टी की जांच से यह भी पुष्ट हुआ कि नगर की दीवार के आसपास खाइयाँ भी रही होंगी। भागवत आदि पुराण ग्रंथों में भी मथुरा का वर्णन एक चार दीवारी युक्त नगर के रूप में में किया गया है। इस दीवार की समय समय पर मरम्मत भी की गई थी, इस के प्रमाण भी प्राप्त हुए हैं। नगरों की ऐसी दीवालों का निर्माण प्रायः शत्रुओं से रक्षा एवं बाढ़ के पानी को नगर में प्रवेश करने से रोकने के लिए किया जाता था।
लोक की स्मृति में जीवित है यह धूल कोट
जब मैं प्राचीन मथुरा नगर की दीवार धूलकोट को समझने का प्रयास कर रहा था, तभी मुझे एकाएक मथुरा की परिक्रमा का स्मरण आया जो स्थानीय लोगों एवं श्रद्धालुओं के द्वारा प्रतिवर्ष कार्तिक मास में अक्षय नवमी तथा देवोत्थान एकादशी के अवसर पर की जाती है।
मैं यह देखकर अत्यंत आश्चर्यचकित हूँ कि प्राचीन मथुरा नगर की दीवार धूलकोट के टीलों की श्रृंखला का क्रम और प्रति वर्ष लगाई जाने वाली मथुरा की परिक्रमा का पथ लगभग एक ही है।
मैंने स्वयं अपने बचपन के दिनों में मथुरा की यह परिक्रमा कई बार लगाई है। हमेशा से जिज्ञासु रहा मेरा मन तब इस उलझन में रहता था कि मथुरा शहर तो होली गेट के अन्दर है, फिर हम इन निर्जन टीलों की इतनी लम्बी परिक्रमा क्यों कर रहे हैं, किन्तु आज उलझन सुलझने लगी है।
मथुरा भले ही मध्यकाल में यमुना नदी के किनारे-किनारे सिमटकर रह गया हो, परन्तु लोक की स्मृति में प्राचीन मथुरा नगर की सीमाएँ, जिन का निर्माण हज़ारों वर्ष पूर्व हुआ था, जीवित हैं मथुरा के परिक्रमा पथ के रूप में। मैं लोक की इस स्मृति पर मुग्ध हूँ।
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