हिन्दू प्रतिमाएं और मथुरा कला का विकास

 

मथुरा कला के अंतर्गत उस दौर के कारीगरों ने हिन्दू, जैन और बौद्ध तीनों ही धर्मों से सम्बंधित देव-प्रतिमाओं का निर्माण बड़े पैमाने पर किया। ईसा से दो शताब्दी पहले से लेकर ईसा की बारहवीं शताब्दी तक बड़े पैमाने पर मूर्तियां यहां बनाई गईं। बुद्ध की पहली मूर्ति गांधार कला के अंतर्गत बनी या मथुरा कला के अंतर्गत बनी इस पर भले ही विद्वानों में एकराय न हो पर यह स्थापित सत्य है कि बुद्ध की पहली मूर्ति बनने से पहले ही मथुरा के कारीगर यहां यक्षों की विशाल प्रतिमाएं गढ़ रहे थे। जहां तक यक्षों का सवाल है तो ये हिन्दू, बौद्ध और जैन तीनों ही धर्मों की कथाओं में सुनने को मिलते हैं। आज भी बड़ी आज भी ब्रज में मथुरा और भरतपुर के सैकड़ों गांव ऐसे हैं जहां के हिन्दू यक्ष (जखैया/जाख) का नियमित पूजन करते हैं। ऐसे में यह कहना कि, उस कालखंड में भी यक्षों के उपासक हिन्दू ही थे, गलत नहीं होगा।

मथुरा से प्राप्त अवशेषों के आधार पर यह साफ है कि यहां का वातावरण किसी भी धर्म की उन्नति के लिए उर्वर था और यही वजह रही कि मथुरा न केवल हिंदुओं साथ ही बौद्ध और जैन धर्मावलंबियों के लिए उपासना का मुख्य केंद्र था। 

इस आलेख में हम मथुरा से प्राप्त हिन्दू धर्म से सम्बंधित मूर्तियों के बारे में चर्चा करेंगे:

मथुरा कला में ब्रह्मा की मूर्ति

कुषाणकाल में बनाई गई ब्रह्मा की दो मूर्तियां मथुरा संग्रहालय में हैं। एक मूर्ति में ब्रह्मा के तीन मुख एक सीध में दिखाए गए हैं और चौथा मुख बीच वाले मुख के पीछे है। बुद्ध की प्रतिमाओं के समान ही अभयमुद्रा और आभामंडल भी दर्शाए गए हैं। महावन से मिली एक मूर्ति में ब्रह्मा अपनी पत्नी के साथ हैं।

मथुरा कला में शिव की मूर्ति

मथुरा से शिव की बहुत मूर्तियां मिली हैं, जिनमें शिवलिंग भी हैं और मानवाकृति में शिव भी हैं। मुखलिंग रूप में भी शिव उपासना के सूत्र मथुरा से मिलते हैं, एक मुखी शिवलिंग और पंचमुखी शिवलिंग तक प्राप्त हुए हैं। विम कड़फाइसिस, वासुदेव आदि कुषाण राजाओं के सिक्कों पर शिव का अंकन मिलता है। इन सिक्कों पर शिव नंदी के साथ मिलते हैं। कुषाणकाल की एक मूर्ति में शक लोग शिव उपासना करते हुए दर्शाए गए हैं। कुषाणकाल से लेकर गुप्तकाल तक के कई सुंदर शिवलिंग यहां से प्राप्त हुए हैं। उत्तर गुप्तकाल की एक मूर्ति में शिव और पार्वती दोनों का अंकन है। कुछ मूर्तियां अर्धनारीश्वर और हरिहर की भी प्राप्त हुई हैं। एक मूर्ति में शिव पार्वती को कैलाश पर्वत पर बैठे हुए दर्शाया गया है और रावण उस पर्वत की उठा रहा है।

मथुरा कला में कार्तिकेय की मूर्ति

शिव के पुत्र कार्तिकेय की भी अनेक मूर्तियां मथुरा से मिली हैं। दायां हाथ अभयमुद्रा में और बाएं हाथ में भाला लिए एक कार्तिकेय की मूर्ति मिली है जिस पर एक अभिलेख भी दर्ज है जो ब्राह्मी लिपि में है। एक अन्य मूर्ति में कार्तिकेय अपने वाहन मयूर पर आसीन हैं। एक गुप्त काल की मृण्मूर्ति में मयूर पर आसीन कार्तिकेय दिखाए गए हैं। एक अन्य मृण्मूर्ति में ब्रह्मा कार्तिकेय का अभिषेक कर रहे हैं।

मथुरा कला में गणेश की मूर्ति

शिव के दूसरे पुत्र गणेश की भी कई रूपों में मूर्तियां मथुरा कला में मिली हैं। गुप्त काल की बाल गणेश और नृत्य करते हुए एकदन्त गणेश की मूर्तियां महत्त्वपूर्ण हैं। उनकी मध्यकालीन मूर्तियों में एक दशभुजी मूर्ति उल्लेखनीय है जिसमें बाल गणेश आकर्षक मुद्रा में मोदक हाथ में लेकर नृत्य कर रहे हैं।

मथुरा कला में विष्णु की मूर्ति

कुषाणकाल की विष्णु की जिस तरह की मूर्तियां मथुरा से मिली हैं अन्यंत्र कहीं से प्राप्त नहीं हुई हैं। यहां से मिली विष्णु की एक चतुर्भुजी मूर्ति महत्त्वपूर्ण है जो प्रारंभिक कुषाणकाल की बोधिसत्व प्रतिमाओं से बहुत मिलती है। विष्णु का एक हाथ अभय मुद्रा में और दूसरे में अमृत कलश है, शेष दो हाथों में गदा और चक्र हैं। शुरुआत में विष्णु सिर्फ दो अस्त्र गदा और चक्र धारण किये हुए मिलते हैं पर बाद में शंख और पद्म भी धारण किये हुए मिलते हैं। मूर्ति विज्ञान की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण मानी गई दो कुषाणकालीन विष्णु प्रतिमाएं भी उल्लेखनीय हैं जिनमें अष्टभुजी विष्णु का अंकन है। गुप्तकाल की एक चतुर्भुजी विष्णु मूर्ति भी महत्त्वपूर्ण है जिसमें विष्णु ध्यान मुद्रा में हैं और उनके सिर पर किरीट मुकुट धारण कराया गया है। इस मूर्ति में कुंडल, मुक्ताहार, भुजबंध और वैजयंती के साथ-साथ लहरदार वस्त्रों का सुंदर अंकन है। महाविष्णु का अंकन भी मथुरा कला में दिखता है।

मथुरा कला में कृष्ण-बलराम की मूर्ति 

यह कुछ आश्चर्यजनक है कि कृष्ण की भूमि होने पर भी मथुरा कला में कृष्ण की प्राचीन मूर्तियां बहुत कम मिलती हैं। पर कृष्ण की पूजा के सूत्र मिलते अवश्य हैं। मथुरा के एक तोरण पर उत्कीर्ण लेख में महाक्षत्रप शोडास के समय में भगवान वासुदेव के महास्थान में तोरण, वेदिका और चतु:शाला (या देवकुल) की स्थापना का उल्लेख है। शोडास के समय में ही मोरा नामक गाँव से प्राप्त एक लेख में पांच वृष्णिवीरों की एक मंदिर में स्थापना का उल्लेख है। सौभाग्य से वृष्णिवीरों की पांच प्रतिमाओं में से तीन खंडित प्रतिमाएं भी मोरा गांव से ही प्राप्त हुई हैं। यह सामग्री प्रथम शती ईसवी पूर्व की है। उल्लेखनीय है कि पांच वृष्णिवीरों में वासुदेव (कृष्ण), संकर्षण (बलराम), प्रद्युम्न, अनिरुद्ध और साम्ब शामिल हैं।

ईसा की दूसरी शताब्दी की एक प्रतिमा मिली है। इस शिलापट्ट में वसुदेव नवजात कृष्ण को सूप में रखकर यमुना पार कर गोकुल जाते हुए दर्शाए गए हैं। कंस किला से प्राप्त एक गुप्तकालीन कृष्ण प्रतिमा मिली है जिसमें कृष्ण कालिय नाग का दमन कर रहे हैं। ईसवी 600 के लगभग की एक प्रतिमा में गोवर्धनधारी कृष्ण दर्शाए गए हैं। बलराम की प्रतिमाएं अपेक्षाकृत अधिक मिली हैं। मथुरा कला में बलराम की सबसे प्राचीन मूर्ति जुनसुटी गांव से मिली है। यह मूर्ति शुंगकाल की है, वर्तमान में यह लखनऊ संग्रहालय में है। बलदेव में दाऊजी की विशालकाय कुषाणकालीन प्रतिमा उल्लेखनीय है। कुषाणकाल से लेकर गुप्तकाल तक हल, मूसल और वारुणी पात्र धारण किये हुए बलराम की अनेक मूर्तियां प्राप्त हुई हैं।

मथुरा कला में देवियों की मूर्तियां

मथुरा से देवों के अलावा उनकी शक्ति स्वरूपा देवियों की भी मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। लक्ष्मी, सरस्वती, पार्वती, महिषासुरमर्दिनी, सिंहवाहिनी दुर्गा, सप्तमातृका और गंगा-यमुना की कई कलापूर्ण मूर्तियां मिलती हैं। इनसे पूर्व की मौर्य और शुंगकाल की मातृ देवी की मृण्मूर्ति भी मिली हैं। यह मृण्मूर्तियां सांचों के बजाय सीधे हाथ से ही बनाई गई हैं। 

मथुरा कला में इंद्र की मूर्ति

कुषाणकाल से लेकर गुप्तकाल तक मथुरा कला में इंद्र की कई मूर्तियां मिलती हैं। मथुरा संग्रहालय में प्रारंभिक कुषाणकाल की एक इंद्र की एक महत्त्वपूर्ण प्रतिमा है। इस प्रतिमा में इंद्र के सिर पर किरीट मुकुट धारण किया हुआ है और हाथ में वज्र है, उनके दोनों कंधों से नाग मूर्तियां निकल रही हैं। एक अन्य मूर्ति में इंद्र के साथ उनका वाहन ऐरावत भी है। इंद्र का उल्लेख बौद्ध धर्म की कथाओं में भी मिलता है इसी वजह से बौद्ध मूर्तियों में भी इंद्र की उपस्थिति दिखती है। तपस्यारत बुद्ध के प्रति सम्मान प्रकट करते हुए इंद्र की भी मूर्तियां मिली हैं।

मथुरा कला और अग्नि की मूर्ति

मथुरा से प्राप्त अग्नि की प्रतिमाओं में एक कुषाणकाल की है और दूसरी पूर्व मध्यकाल की है। इन दोनों ही प्रतिमाओं में अग्निदेव के सिर के ऊपर ज्वालाएं निकलती दर्शायी गयी हैं। पूर्व मध्यकाल वाली प्रतिमा में सूर्य के साथ उनका वाहन मेष (मेंढा) भी दर्शाया गया है। कंकाली टीले से उत्खनन के दौरान एक गुप्तकालीन अग्नि प्रतिमा भी प्राप्त हुई थी जो लखनऊ संग्रहालय में है।

मथुरा कला में नवग्रह की मूर्ति

मथुरा कला में नवग्रहों का अंकन भी मिलता है। नवग्रहों का अंकन शिलापट्टों पर मिलता है। राहु की एक स्वतंत्र प्रतिमा भी प्राप्त हुई है जिसमें उसे तर्पण करते हुए दर्शाया गया है।

मथुरा कला में सूर्य की मूर्ति

सूर्य नवग्रहों में सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। मथुरा कला में सूर्य की मूर्तियां दो प्रकार की मिलती हैं। पहले प्रकार की मूर्तियों में सूर्य का अंकन शक राजाओं की वेशभूषा (उदीच्यवेश) में मिलता है। इस प्रकार की प्रतिमा में उनके दाएं हाथ में कटार तथा बाएं हाथ में कमल का गुच्छा है और वे दो घोड़ों के रथ पर सवार हैं। बाद में सूर्य के रथ के घोड़ों की संख्या चार और फिर सात हो जाती है। मथुरा कला में इस तरह की अनेक।मूर्तियां मिली हैं। एक मूर्ति सेलखड़ी की बनी हुई भी मिली है जिसमें सूर्य को सासानी राजाओं के पहनावे में दिखाया गया है। सूर्य की दूसरे प्रकार की मूर्तियों में उन्हें अन्य देवों की तरह बैठे हुए या खड़े हुए दर्शाया गया है, इसमें वे दोनों हाथों में कमल लिए हुए रहते हैं। मथुरा कला की नौवीं शताब्दी की एक सूर्य प्रतिमा बरसाना से मिली है जिसमें सूर्य को दण्ड और पिंगल के साथ चित्रित किया गया है।

मथुरा कला और कामदेव की मूर्ति

मथुरा कला में कामदेव का अंकन अनेक कलापूर्ण पाषाण और मृण्मूर्तियों में मिलता है। मिट्टी की मूर्ति में धनुष और पांच बाण धारण किये हुए कामदेव का सुंदर स्वरूप अंकित किया गया है। शुर्पक मछुए तथा राजकुमारी कुमुदुति की प्रेम कथा और बुद्ध की मार विजय आदि के दृश्यों के चित्रण में कामदेव की उपस्थिति मिलती है।

मथुरा कला में हनुमान की मूर्ति

मथुरा कला में हनुमान की 6′-7″ ऊंची मूर्ति प्राप्त हुई है। मथुरा संग्रहालय में रखी यह मूर्ति लगभग 9वीं शताब्दी की है। मथुरा के हनुमान की एक अन्य विशालकाय मूर्ति भी प्राप्त हुई थी जो कोलकाता के संग्रहालय में है।

मथुरा कला में यक्ष, किन्नर, गंधर्व की मूर्ति

मथुरा कला में यक्ष, किन्नर, गंधर्व सुपर्ण तथा अप्सराओं की मूर्तियां बड़ी संख्या में मिली हैं। इन्हें सुख-समृद्धि और विलास का परिचायक माना गया है। संगीत, कला, नृत्य और सुरापान इनके प्रिय विषय हैं। मथुरा से यक्षों की प्रतिमाएं बड़ी संख्या में मिली हैं। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण विशालकाय प्रतिमा परखम गांव से मिली है जो ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी की है। ऐसी ही एक बड़ी मूर्ति बड़ौदा गांव से मिली है। इनके अतिरिक्त भरना कलां, हथीन, पलवल आदि स्थानों से भी यक्ष-यक्षियों की मूर्तियां मिली हैं। यक्ष प्रतिमाओं की विशालता का प्रभाव बाद में कुषाणकालीन बोधिसत्व की प्रतिमाओं पर भी स्पष्ट नजर आता है। यक्षों के राजा कुबेर और उसकी पत्नी हारीती की प्रतिमाएं भी मिली हैं। इनका पूजन हिन्दू, बौद्ध और जैन तीनों धर्मों में मिलता है। मथुरा संग्रहालय में रखी कुबेर प्रतिमाओं में उन्हें सुरापान करते हुए दर्शाया गया है। इनके हाथों में सुरापात्र, बिजौरा-नीबू तथा रत्नों की थैली या नेवला अंकित किया गया है। कुबेर के साथ उनकी पत्नी हारीती की भी मूर्ति मिलती है, जो प्रसव की अधिष्ठात्री देवी मानी गई है। मथुरा कला में हारीती का चित्रण गोद में बच्चा लिए हुए मिलता है। इनके अलावा मुख्य प्रतिमाओं के साथ अलंकरण के रूप में किन्नर, गंधर्व, सुपर्ण, विद्यावर आदि का चित्रण मिलता है।

मथुरा कला में नाग की मूर्ति

नागों का संबंध भी विविध धर्मों के साथ मिलता है। कृष्ण के भाई बलराम को शेषनाग का अवतार माना गया है। विष्णु भी नागों की शैय्या पर शयन करते हैं। कृष्ण कथा में कई स्थानों पर नागों का वर्णन है। जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ और सुपार्श्व के चिन्ह भी नाग हैं। बौद्ध कथाओं के अनुसार मुचुलिन्द नामक नाग ने बुद्ध के ऊपर छाया की थी और नंद और उपनंद नागों ने उन्हें स्नान कराया था। प्रायः सभी भारतीय धर्मों में नागों का पूज्यनीय स्थान माना गया है। मथुरा कला में नागों की मूर्तियां बड़ी संख्या में मिली हैं। 

पुरुषाकार और सर्पाकार दोनों ही रूपों में नागों की मूर्तियां मिलती हैं। शेषावतार के रूप में बलराम की जो मूर्तियां मिलती हैं उनके गले में वैजयंती माला तथा हाथों में मूसल और वारुणी पात्र दर्शाए गए हैं। कुषाणकाल और गुप्तकाल में नागों की अनेक सुंदर मूर्तियां बनाई गईं। नाग की सबसे महत्त्वपूर्ण व उल्लेखनीय मूर्ति मथुरा के छडग़ांव से प्राप्त हुई है जो पौने आठ फुट ऊंची है। इसमें नाग की कुंडलियां बड़े सुंदर और सुदृढ ढंग से दर्शाई गई हैं। इस मूर्ति पर खुदे अभिलेख के अनुसार हुविष्क के शासनकाल के चालीसवें वर्ष में ( सन 118 ईसवी) सेनहस्ती तथा भोजुक नामक दो मित्रों ने इसकी स्थापना कराई थी। भूमिनाग तथा अधिकर्ण नाग की मूर्तियां भी उल्लेखनीय हैं। 

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