गोपियों के कृष्ण के प्रति प्रेम का प्रतिफल है-महारास

रासोत्सव: सम्प्रवृत्तो गोपीमण्डल मण्डित:।
योगेश्वर कृष्णेन तासां मध्ये द्वयोद्वयो:
प्रविष्टेन गृहितानां काण्ठे स्वनिकटं स्त्रियः।।

गोपाल शरण शर्मा

गोपियां भगवान श्रीकृष्ण की अनन्यतम भक्त है। भक्ति को सदैव अपने प्रेमास्पद के प्रति दृढ होना चाहिए । ब्रज की गोपियां भी कृष्ण के प्रति प्रेम में दृढ थी। व्रज की गोपियां हर समय अपने श्रीकृष्ण का ध्यान करती थी। गोपियों का यह अनुराग देख कर ही चौसठ कला प्रबीन भगवान कृष्ण ने शरद पूर्णिमा की रात्रि को चन्द्रमा की धवल चांदनी में यमुना पुलिन के निकट वंशीवट पर रास का आयोजन किया।

भगवानपि ता रात्रि: शरदोत्फुल्लमालिका।

वीक्ष्य रन्तु मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रित:।।

शरदऋतु के आगमन पर श्री कृष्ण अपनी बाँसुरी पर गोपाँगनाओं के मन को हरने वाली काम-बीज मंत्र ‘क्लीं’ का सप्तम स्वर छेड़ने लगे और बाँसुरी एक एक गोपी का नाम ले लेकर ललिते विशाखे वृषभानुजे पुकार ने लगी”- अब भला इस पुकार को ब्रज ललनायें कैसे न सुने? गोपियों के चित्त-वृत्ति एक क्षण के लिये भी श्री कृष्ण से विमुख होती ही नहीं थी, इसी कारण वह उसी क्षण बाँसुरी की पुकार, वेणु नाद सुन लेती थीं। गोपियों का अपना कुछ भी नहीं था, ‘स्वसुख’ की कोई कामना नही। स्वाँस-स्वाँस में प्रिय सुख अभिलाषा, ‘तत्सुख’ के लिये प्राणों को भी त्याग दें। आत्मा और परमात्मा का सम्बन्ध स्थापित हो गया था। बाँसुरी प्राण वाद्य है, हृदय के सर्वोत्तम भावों को, विरह को व्यक्त करने के लिये इससे बढ़कर कोई अन्य वाद्य नहीं। कृष्ण कन्हैया की बाँसुरी बजती है-अर्थात बाँसुरी बजने का तात्पर्य कि नंदनंदन व्याकुल होकर पुकार रहे हैं अपने प्रेमी को, अपने अंशी को।

अपने प्रियतम से मधुरातिमधुर मिलन की आकांक्षा तो गोपियों हृदय में जन्म-जन्मांतर से थी। जब दोनों ही ओर से ऐसे प्रेमी हों, दोनों में ही “तत्सुखसुखित्वा” की भावना हो,हृदय से हृदय के तार जुड़े हों। पृथक देह-धारण केवल लीला के लिये ही हो। कृष्ण कन्हैया अपनी बाँसुरी में अपने प्राण भर कर पुकारें,तब गोपियाँ की हृदयतंत्री के तार कैसे न झनझनायें? कैसे संभव है?

शरद तो शान्त, धीर और पावन है जो आज उत्फुल्लमल्लिका यानी फूलों की महक से मदमाता है….! ऐसी एक फूलों की रात जब शारदीय पूर्णचंद्र अपनी प्रखर बिम्ब में आलोकित हो सुकोमल किरणों से वातावरण में अनुराग भर देता हो, यमुना पुलिन में परिव्याप्त उस अमृतमयी रसवर्षा को ब्रजराज की बाँसुरी ऐसी रसोल्लास भर देती है कि ब्रज गोपिकाएँ जो जहाँ जिस हाल में थी, जैसी थी, जो कुछ कर रही थी सबकुछ वहीं की वहीं बिसार बस चल पड़ी यमुना पुलिन की ओर उन्माद सी….आजग्मुरन्योनमलक्षितोद्यमा सभी से छुपकर वंशी ध्वनि की ओर भागती रही वो विरहानना…! स्वागतम् वो महाभागा. उस रात्रि यमुना पुलिन पर ब्रजराज ने गोपियों का स्वागत किया….!

रासोत्सव: सम्प्रवृत्तो गोपीमण्डल मण्डित:।

योगेश्वर कृष्णेन तासां मध्ये द्वयोद्वयो:

प्रविष्टेन गृहितानां काण्ठे स्वनिकटं स्त्रियः।।

भगवान् शिव से बड़ा कोई श्री विष्णु का भक्त नहीं, और भगवान् विष्णु से बड़ा कोई श्री शिव का भक्त नहीं है ! इसलिए भगवान् शिव सबसे बड़े वैष्णव और भगवान विष्णु सबसे बड़े शैव कहलाते हैं | जब श्री कृष्ण ने महा रास का उद्घोष किया वृन्दावन में तो पूरे ब्रह्माण्ड के तपस्वी प्राणियों में भयंकर हल चल मच गयी की काश हमें भी इस महा रास में शामिल होने का मौका मिल जाय महा रास में शामिल होने वालों की योग्यता को परखने की जिम्मेदारी थी श्री ललिता सखी की, जो स्वयं श्री राधा जी की प्राण प्रिय सखी थीं और उन्ही की स्वरूपा भी थीं |

हमेशा एकान्त में रहकर कठोर तपस्या करने वाले भगवान् शिव को जब पता चला की श्री कृष्ण महा रास शुरू करने जा रहें हैं तो वो भी अत्यन्त खुश होकर, तुरन्त अपनी तपस्या छोड़, पहुंचे श्री वृन्दावन धाम और बड़े आराम से सभी गोपियों के साथ रास स्थल में प्रवेश करने लगे |

पर द्वार पर ही उन्हें श्री ललिता सखी ने रोक दिया और बोला की हे महा प्रभु, रास में सम्मिलित होने के लिए स्त्रीत्व जरूरी है ! तो भोलेनाथ ने तुरन्त कहा की ठीक है तो हमें स्त्री बना दो |

तब ललिता सखी ने भोले नाथ का गोपी वेश में श्रृंगार किया और उनके कान में श्री राधा कृष्ण के युगल मन्त्र की दीक्षा दी | तब से भगवान् शिव गोपेश्वर रूप में ही साक्षात् निवास करते हैं, वृन्दावन के गोपेश्वर महादेव मन्दिर में जहाँ उनका रोज शाम को गोपी रूप में श्रृंगार किया जाता है नित्य रास के लिए | महारास का वर्णन करते हुए हरिराम व्यास जी कहते है-

श्याम नटुवा नटत राधिका संगे।

पुलिन अद्भुत रच्यो,रूप गुन सुख सच्यौ,

निरखि मनमथबधू मान-भंगे।।

तत्त थेई थेई मान, सप्तसुर षट गान,

राग रागिनी तान श्रवन भंगे।

लटकि -मुह -पटकि, पद मटकि, पटु झटकि,

हँसि विविध कल माधुरी अंग अंगे।।

रतन कंकन क्वनित किंकिन नूपुरा-चर्चरी

ताल मिलि मनि मृदंग।

लेति नागर उरप, कुँवरि औचर तिरप,

व्यासदासि सुघरवर सुधंगे।।

(व्यास वाणी :[पृष्ठ ३४४ )

रसिक भक्त लोक-लाज ,वेद-विधि आदि सभी से ऊपर उठकर सदा राधा-कृष्ण की इन्हीं लीलाओं में मस्त रहता है। उसे किसी के उपहास की चिन्ता नहीं और न ही किसी की प्रशंसा की अपेक्षा है। यही उपासक की अनन्यता है। जय श्री राधे।।

गोपाल शरण शर्मा (साहित्यकार)

गोपाल शरण शर्मा (साहित्यकार)

हिस्ट्री पंडित डॉटकॉम के लिए यह आलेख गोपाल शरण शर्मा ने लिखा है, गोपाल साहित्यकार है और वृंदावन स्थित ब्रज संस्कृति शोध संस्थान के प्रकाशन अधिकारी हैं।

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