राजस्थान में एक प्रेम कथा सबकी जुबान पर होती है। ये कथा है राजकुमार साल्ह कुमार और राजकुमारी मारूवणी के प्रेम की। इस कथा में प्रेम विरह का बड़ा जीवंत वर्णन है। इसकी लोकप्रियता का आलम यह है कि पिछले एक हजार साल से यह लोगों की जुबान पर है। आम बोलचाल की भाषा में यह कथा ढोला-मारू के किस्से के नाम से जानी जाती है।
क्या है ढोला-मारू की कहानी
संक्षेप में ढोला-मारू की कहानी कुछ यूं है :
बचपन में ही हो गया विवाह
एक समय पर वर्तमान बीकानेर क्षेत्र में स्थित पूंगल नामक स्थान पर बड़ा भयंकर अकाल पड़ा। राज्य के लोग मजबूरी में अन्यंत्र स्थानों पर जाने लगे। राजा ने अपने मित्र और नरवर राज्य के राजा नल के यहां शरण ली। राजा नल के पुत्र का नाम साल्हकुमार था। साल्हकुमार जब तीन वर्ष का था उसका विवाह पूंगल के राजा की पुत्री मारूवणी के साथ हुआ। राजकुमारी उस समय महज डेढ़ वर्ष की थी। यह बाल विवाह था जिसके चलते गौना उस समय नहीं हुआ। पूंगल राज्य में स्थिति सामान्य होने पर पूंगल का राजा अपनी पुत्री के साथ अपने राज्य को लौट गया।
युवा होने पर विवाह की बात भूल गया राजकुमार
युवा होने पर साल्हकुमार अपने विवाह का किस्सा भूल गया। उसका दूसरा विवाह कर दिया गया। दूसरी पत्नी को राजकुमार के पहले विवाह का हाल पता था। वह यह भी जानती थी कि राजकुमारी मारूवणी अत्यंत रूपवती है। उसे भय था कि अगर साल्हकुमार अपनी पहली पत्नी को ले आया तो उसे भुला देगा। पूंगल के राजा ने अपने दामाद के पास गौने के लिए कई बार संदेशे भेजे। राजकुमार की दूसरी पत्नी हर संदेशवाहक की हत्या करवा देती थी। जिसके कारण पूंगल का कोई भी संदेश साल्हकुमार तक नहीं पहुंच सका। यह वह समय था जब राजकुमारी मारूवणी विरह वेदना से ग्रस्त थी। कवि ने उस विरह वेदना का बड़ा ही मार्मिक वर्णन किया है।
एक चतुर ढोली ने पहुंचाया मारूवणी का संदेश
अंत में पूंगल के राजा ने एक चतुर संदेशवाहक को भेजा। संदेशवाहक की डोली लिखा गया है। इस ढोली ने नरवर में पहुंच कर एक विरह के गीत के माध्यम से साल्हकुमार के पहले विवाह की कथा गाई। यह सुनकर साल्हकुमार को सब याद आ गया। वह अपनी ससुराल पूंगल पहुंचा। राजकुमारी से मिलकर उसका विरह दूर किया। कुछ दिन रुककर वह मारूवणी को साथ लेकर वापस लौटा।
रास्ते में सामना करना पड़ा मुश्किलों का
रास्ते में कई मुश्किलें आईं। राजकुमारी को सांप ने डंस लिया। शिव-पार्वती की कृपा से यह संकट टला। यहां एक खलनायक भी सामने आया। इस खलनायक का नाम था उमर सूमरा। यह राजकुमार की हत्या कर राजकुमारी को हासिल करना चाहता था। वह मार्ग में एक स्थान पर बैठ गया। जब ऊंटनी पर सवार साल्हकुमार और राजकुमारी वहां से निकले तब उसने अमल की मनुहार की।
क्या होती है अमल की मनुहार
अमल की मनुहार का अर्थ अफीम सेवन से है। उन दिनों उस क्षेत्र में अफीम सेवन का बड़ा चलन था। अफीम को सत्कार की सामग्री माना जाता था। किसी भी सभ्य मनुष्य के लिए इस मनुहार को स्वीकार न करना असभ्यता माना जाता था। साल्हकुमार ऊंटनी से उतर कर अफीम सेवन करने लगा।
ढोली भांप गया खतरा
चतुर ढोली उस समय भी उनके साथ था। वह उमर सूमरा के इरादे भांप गया। उसने ऊंटनी पर बैठी राजकुमारी को सचेत कर दिया। राजकुमारी ने ऊंटनी को लात मार कर दौड़ा दिया। ऊंटनी को अनायास ही भागते हुए देख राजकुमार उसे रोकने को पीछे दौड़ पड़ा। जैसे ही राजकुमार ऊंटनी के पास आया राजकुमारी ने उसे उमर सूमरा के छल के बारे में बता दिया। राजकुमार ऊंटनी पर चढ़ गया। दोनों अपने राज्य की ओर भाग निकले।
उमर सूमरा ने किया पीछा
आप ढोला-मारू के जितने भी चित्र देखेंगे तो उनमें से अधिकांश इसी समय के हैं। एक ऊंटनी पर सवार ढोला और मारू। उनके पीछे दौड़ते घुड़सवार। अधिकांश चित्रों में मारू को ऊंटनी पर आगे बैठे और ढोला को पीछे बैठा या घुड़सवारों से लड़ते दिखाया जाता है। राजकीय संग्रहालय भरतपुर में संग्रहीत ढोला मारू की पत्थर की मूर्ति में इसके उलट दृश्य दिखता है।
18वीं शताब्दी की बनी है यह मूर्ति
भरतपुर के संग्रहालय में रखी ढोला मारू की मूर्ति पत्थर की है। यह अठारहवीं शताब्दी में बनी थी। यह धौलपुर से प्राप्त हुई थी। इस मूर्ति में ऊंटनी पर ढोला को आगे बैठा हुआ दिखाया है। मारू पीछे बैठी है और पीछा कर रहे घुड़सवार पर बाण से निशाना साध रही है। बहरहाल साल्हकुमार और राजकुमारी सकुशल अपने स्थान पर पहुंच गए और खुशी खुशी रहने लगे। यहीं कथा समाप्त होती है।
अजमेर के एक गांव में हुआ था इनका विवाह
साल्हकुमार और मारूवणी का विवाह अजमेर के एक गांव बघेरा में हुआ था। ऐसा लोगों का मानना है। वहां एक पत्थर का विशाल तोरण द्वार भी बना हुआ है। यह द्वार बहुत प्राचीन है। इस पर नक्काशी कर मूर्तियां उकेरी गई हैं।
लोकगीतों में आज तक अमर हैं ढोला मारू
राजकुमारी मारू के नाम से प्रसिद्ध हई। साल्हकुमार को उसने अपने विरह के गीतों के दौरान ढोला कह कर संबोधित किया। अतः राजकुमार ढोला नाम से प्रसिद्ध हो गया। ढोला शब्द वस्तुतः पति या प्रेमी का परिचायक शब्द है। आज भी लोकगीतों में स्त्रियां अपने पति या प्रेमी के लिए ढोला शब्द का प्रयोग करती हैं। इनकी कथा को काव्य रूप सबसे पहले करीब एक हजार वर्ष पूर्व कवि कलोल ने लिखा। सत्रहवीं शताब्दी में कवि कुशलराय वाचक ने इसमें कुछ बढ़ाया है।
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