‘अर्थात्’ का अर्थ संधान (पुस्तक समीक्षा)

अमनदीप वशिष्ठ

अमिताभ चौधरी का काव्य संग्रह ‘अर्थात्’ मूलतः पोएट्री होते हुए भी शिल्प में ‘ट्रैक्टेटस’ की याद दिलाता है। मितकथन और घनत्व उसी तरह हैं जैसे गणित के प्रमेय होते हैं। बरसों पहले जब विट्गिंस्टीन ने भाषा दर्शन की महान कृति ‘ट्रैक्टेटस लॉजिको फिलॉसॉफिकस’ लिखी थी तो अनेक विद्यार्थियों को वह उसके विशिष्ट शिल्प के कारण भी याद रह गयी। सूत्रों -उपसूत्रों में विभाजित पूरा टेक्स्ट। ‘अर्थात्’ की पहली बार की स्मृति कुछ इस तरह की है जैसे हम कोई एकदम नयी तरह का का भवन-स्थापत्य देखते हैं। फ़िर महत्वूपर्ण बात ये पता चलती है कि ये नया शिल्प ‘प्रयोगधर्मिता’ नहीं है अपितु कथ्य कुछ ऐसा है कि वो विशिष्ट आकार साथ लेकर आया है।

काव्य में अमूमन घोषणात्मक वक्तव्य[ डेक्लेरेटिव स्टेटमेंट्स] मिलते हैं। वे वक्तव्य पहले पोस्टरों आदि पर काम आया करते थे। अब नई तकनीक आने के बाद स्टेटस आदि के लिए चित्र वगैरह में काम आते हैं। हम यदि उन माध्यमों का प्रयोग न भी करते हों तो भी उन माध्यमों का बोध तो हम तक सरक आता ही है। अमिताभ जी के इस संग्रह में उस तरह के वक्तव्य बहुत थोड़े हैं। लगभग न के बराबर। उनमें शब्द इतने थोड़े हैं कि कविताओं का [एक कविता नहीं !] एक समुच्चय देखने के बाद ही उस भावलोक से कुछ परिचय बनता है। अतः एक समस्या ये भी बनती है कि पाठ के प्रक्रिया कैसी होगी। दो उदाहरण देखें।

छायान्तर : धूप चिलक एक :

निकट अ-निकट रेख।

_________________

भू पर

उसी का नील है –

मेरी आँखों में स्पष्ट

[इतने गहन काव्य को देखते हुए मन में यह भी आता है कि जो शब्द ऐसे मौन में ले जाते हों उनपर कुछ कहना कैसा होगा। फिलवक़्त यही कि उन कविताओं को पढ़ते हुए जो भाव उपजता है – ये लिखना उस भावलोक के दौरान नहीं – बल्कि उस भावलोक की स्मृति का पुनरुत्पादन जैसा है।]

कभी कभी ऐसे वाक्यांश मिलेंगे जो स्वयं में किसी गीत का अंगभूत लग सकते हैं। मेरी व्यक्तिगत मान्यता है कि वे ‘अर्थात्’ का मूल स्वर नहीं हैं। मस्लन

जैसे मैं तुम्हें गिन नहीं सकता

और मेरी कोई गिनती नहीं

ये पंक्तियाँ निश्चय ही बहुत सुन्दर हैं। परन्तु ये उस अर्थ-शिल्प के संधान के रास्ते पर नहीं मिलेंगी जो मेरे विचार से ‘अर्थात्’ की तलाश है। अलबत्ता ये एक व्यक्तिनिष्ठ -सब्जेक्टिव व्याख्या है कि ‘मूल स्वर’ क्या है। चूँकि हो सकता है वह मूल स्वर दरअसल कई स्वरों का समूह हो !

‘अर्थात्’ में कुछ शब्दों का प्रयोग ख़ास तरह से होता है। जैसे अ -भाव

अ-भाव के नीलाभ तुम : कि जैसे –

_______________

वर्षा के अ-भाव की मूसलाधार में

यहां अभाव को ‘अ-भाव’ की तरह लिखना एक विशिष्ट प्रयोजन की पूर्त्ति करता है। अ-भाव इस तरह से लिखा गया है कि वह भाव का व्याकरणिक विलोम भर न रह जाए। भाव के होने से हाइफ़न ने एक अंतराल डाल दिया है। इसी तरह अ-निकट में भी।

चिह्नों का प्रयोग ‘अर्थात्’ में इतने विशिष्ट तरीके से हुआ है कि कोई उसपर अलग से ही काम कर सकता है। एक और उदाहरण देखें। कवि अमूमन ‘अर्थात्’ में वर्गाकार ब्रैकेट [ ] का प्रयोग करता है। सिमिट्री – सममिति के लिहाज़ से हमारे दौर में ये ब्रैकेट अधिक नज़दीकी सौंदर्यबोध का प्रतीक हैं बजाय कि गोल ब्रैकेट के। हालाँकि गणित अथवा कम्प्यूटर के प्रोग्रैमिंग की भाषा में इन सब ब्रैकेट्स का विशिष्ट अर्थ होता है। लेकिन समकालीन स्थापत्य में हम देखें तो सीधी रेखाएं वक्र आकृतियों पर छा गयी हैं। नए निर्माणों में लगने वाले गेट या छत की ग्रिल अथवा खिड़कियों में पहले की तरह वक्रीय फ्रेम या डिज़ाइन नहीं लगते। स्टील का ये काम अधिकतर सीधी रेखाओं वाले हिस्सों से होता है। पहले की खिड़कियों या दरवाज़ों में फ्लोरल-पैटर्न होते थे। फूल पत्तियों के मोटिफ। और मुड़े हुए वक्रीय सरिये। अब वैसा नहीं है। वह यदि हम कपड़ों के नवीनतम फैशन डिज़ाइन देखेंगे तो भी स्पष्ट दिखेगा। केवल ‘एथनिक-वियर’ को छोड़कर जो वस्तुतः सांस्कृतिक भूतकाल को समसामयिक बनाने का प्रयास होता है। ‘अर्थात्’ से एक और मिसाल।

नीला अँधेरा है [उद्दीप्त] इस कक्ष में।

‘नीला’ शब्द देखकर प्रसंगवश एक बात और जोड़ी जाए। ‘अर्थात्’ में बहुत से शब्दों की आवृत्ति बार-बार हुई है। उसमें एक यह भी है। इसके कारण की व्याख्या को देखने से पूर्व इस आवृत्ति को देखें। अलग अलग कविताओं से – जैसे –

नभ के नील को ढाँक लेती­­

_______________

आकाश का यह नील

_______________

भू पर उसी का नील है

मेरी आँखों में स्पष्ट

______________

नील उतरा हुआ पृष्ठ पढ़ूँगा

एक अंतिम कविता की तरह

__________________

तुम्हारे विस्तार का असीम ध्वनि नील

ऐसे कुछेक शब्द और भी हैं। उन सबकी सूची बनाना अभीष्ट नहीं। लेकिन इतना देख लेना पर्याप्त होगा कि एक ही शब्द हर बार अलग अर्थ-संघात लेकर आता है। जब हम कविता की समग्रता में इन पंक्तियों को देखेंगे तो ये और भी अधिक स्पष्ट होगा। इसके कारण को किसी गणित के सूत्र की तरह ‘निश्चितता’ लिए हुए देख पाएं वह तो सम्भव नहीं परन्तु एक अंदाजा भर लगा सकते हैं। सो वह ये कि कवि कुछ विशिष्ट अर्थों के साथ कार्य करते करते कुछ विशिष्ट शब्दों की ध्वनियों को निकटतर पाता है। फ़िर कोई एक शब्द अपने शब्दकोशीय अर्थ से बाहर खींच लिया जाता है। इसके सभी उदाहरणों पर बात करना सम्भव नहीं परन्तु फिलवक़्त इस ‘नील’ शब्द के प्रयोग को देखकर मामला कुछ कुछ साफ़ होने लगता है।

इस तरह के मामलों को पुराने बुज़ुर्ग विद्वान ‘श्लेष’ के अंतर्गत समझते थे। उसका लक्षण ये होता था कि एक शब्द से या फ़िर एक वाक्य से कई-कई अर्थ निकल आते हैं।

इस मामले में एक मिसाल दी जा सकती है। जो ऋषि दयानंद जी ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के अलंकारभेदविषयक अध्याय में बताई है। ऋग्वेद के पहले मण्डल के नवासीवें सूक्त का एक मन्त्र-

अदितिर्द्यौरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता स पिता स पुत्रः। विश्वे देवा अदितिः पञ्च जना अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम्।।

इसमें जो बात ख्याल में लेने की है सो वो ये कि इसके भाष्य में स्पष्ट किया गया कि इस मंत्र में अदिति शब्द के अलग अलग अर्थ हैं। इस मंत्र को ध्यान से देखते ही खुद-ब-ख़ुद ये साफ़ हो जाता है कि अदिति शब्द का अर्थ द्यौ अंतरिक्ष माता पिता विश्वेदेवा पञ्चजना आदि बहुत कुछ है। ऋषि जी ने इसे श्लेष-अलंकार की एक मिसाल के तौर पर कहा है। ऐसे ही ‘अग्नि’ शब्द के श्रुति में अलग-अलग मायने आते हैं। ‘अर्थात्’ में ‘नील’ या फ़िर कुछेक ऐसे शब्द जिनकी बार-बार पुनरावृत्ति हो रही है – उन्हीं देखेंगे तो मामला साफ़ होने लगेगा। ‘अर्थात्’ में कवि ने जिस तरह का प्रयोग किया है वो एकदम कोई नयी चीज़ नहीं है। लेकिन उसकी अभिव्यक्ति नए अंदाज़ में हुई है। इसलिए यदि कोई ये कहे कि एक ही शब्द[मस्लन ‘नील’] बारम्बार आ रहा है तो ये क्यों न पुनरुक्ति-दोष मान लिया जाए। तो उसमें इतना भर निवेदन है कि उसका अर्थसंघात का दोहराव नहीं हो रहा। या यूँ कहें कि परिप्रेश्य के बदलने से वो शब्द नए अर्थ से भर जाता है।

‘अर्थात्’ में परिवर्तन की प्रक्रिया क्षोभ के बिना आती है। इसमें रूपांतरण चुपचाप होते हैं। जहाँ कहीं भावोद्रेक है वो भी बहुत संयमित ढँग से कहा गया है। ऐसा लगता है मानों कवि ने प्रक्रियाओं सबंधी एक पूरी दार्शनिक दृष्टि विकसित कर ली है। एक कविता ‘बिना बात के विचलन में’ वह दृष्टि पूरी आ गयी है। हालांकि अभी हम दखेंगे कि वो दृष्टि दूसरी जगहों पर भी है ही।

जैसे किसी ने कहा ,” मैंने मृत्यु को आते देखा है !”

और इतना कान में कहने जैसा कहा

कि किसी ने नहीं सुना

ये इतने मद्धम स्वर में कहना इन कविताओं की प्रक्रिया संबंधी बुनियादी टोन है। कुछेक उदाहरणों से बात एकदम साफ़ हो जायेगी।

आँख मूंदकर देखने की बात और है !

_______________________

मैं अपनी जगह से विचलित हूँ !

मन की गति से

____________

पीठ और छाती जहाँ अपना स्थान छोड़कर

एक दूसरे की ओर खिंचते हैं

और

खींचते हैं एक दूसरे- को ;

एक-दूसरे के विक्षोभ से [समक्ष होकर] – एक होने को

होते हैं ;

मैं वहाँ ठहर जाता हूँ

पूरी कविता ज्यों की त्यों उद्धृत किये बिना हालांकि बात कहना कठिन होता है लेकिन फ़िर भी तीसरे उदाहरण से  स्पष्ट है कि किस तरह गति से स्थैर्य की ओर मुड़ता है। हालांकि इसमें ‘मैं’ शब्द का प्रयोग न हुआ होता तो बात अधिक गहनतर होती। बहुत जगह ऐसा हुआ कि आत्मपरक सम्बोधन आ गया है। उसे लिखे बगैर भी काम चल सकता था। ऐसा कहा जा सकता है कि यदि कविता ही मौलिक निज-अनुभव की जगह नहीं देगी तो कौन देगा ! वह तर्क यद्यपि सही है परन्तु जिस तरह का काव्य संसार का अनुसंधान ‘ अर्थात्’ में  किया जा रहा है वहाँ उस तरह के प्रयोग में संयम बरतना चाहिए।

एक दो कविताएँ बहुत अच्छी होती हुई भी ‘ अर्थात्’ की काव्य-योजना के साथ फिट नहीं हैं। मस्लन ‘बारिश में आओ ‘अथवा’ मैं हवा को धन्यवाद कहता हूँ’ । हालांकि ऐसा कहना अनाधिकार चेष्टा लग सकती है, चूँकि किस कविता को रखना है और किसको नहीं , ये कवि का ही अधिकार क्षेत्र है। ये दोनों कविताएँ सुकोमल भाव-संसार से बनी हैं और स्वतंत्र रूप से निश्चित ही मुझे प्रिय हैं। परन्तु जिस तरह का अनुसंधान ‘अर्थात्’ में चल रहा है उसके साथ इनका सीधा संबंध दीखता नहीं। इनका टोन पॉपुलर भावप्रवण कविताओं के नज़दीक जा लगता है जो कुछ वरिष्ठ कवि भी लिखते रहे हैं। हो सकता है ये मेरा दृष्टिदोष भी हो। अतः ये केवल एक विनम्र निवेदन ही समझा जाए।

‘अर्थात’ को देखते हुए ये ध्यान आएगा कि इस काव्य-अनुभव का प्रतिफलन आकुलता में नहीं होता। उर्दू काव्य में जिसे हम हूक अथवा एक मधुर-टीस के तौर पर अथवा छायावादी काव्य वियोग के अवसरों पर अनुभूत करते हैं वैसी भावदशा अमूमन यहाँ पैदा नहीं होती। लगभग एक प्रशांत-भाव रहता है। जैन शास्त्रीय भाषा में परिणामों के परिणमन को पर्याय-दृष्टि कहकर अभिहित किया जाता है। तो एक तरह से हम कह सकते हैं कि पर्यायों की मौजूदगी तो यहॉँ है – लेकिन पर्यायों की वजह से कोई आकुलता नहीं दिखती। [पर्याय का मतलब यहाँ परिणमन-बदलाव से है। आमतौर पर प्रचलित समानार्थकता से नहीं !] यदि हम वाक्यों को एक एक करके अलग अलग छांट लें और फ़िर उनका अर्थ देखें तो लगेगा कि उनमें पर्याप्त आकुलता है। लेकिन काव्य का कुल प्रभाव वैसी आकुलता न लाकर एक प्रशांत भाव देगा। हालाँकि इसकी कुछेक व्याख्याएं उपलब्ध हैं। मस्लन ये कि कला का अनुभव या कि उससे गुज़ारना एक तरह का सूक्ष्म कैथार्सिस होता है। उससे आकुलता का रेचन हो जाता है। परन्तु इस मामले में मुझे ये व्याख्या देना पूरी तरह ठीक नहीं लगता। ये शायद कैथार्सिस नहीं बल्कि अनुनाद-रेज़ोनेंस अधिक है। कोई हमारी विशेष फ्रीक्वेंसी [आवृत्ति] इस कुल अनुभव से मिल जाती है। देखिये –

ओह ,मेरे गाँव

मेरी जलती हुई चिता पर तुम इतना पानी बरसाओगे

तो मैं इस आग से कहाँ जाऊंगा कि मेरा एक अतीत है !

और मेरी प्यास अनबुझ है, इसलिए मैं लौट आऊंगा !

इसमें अगर शब्दों का थोड़ा भी हेर-फेर होता तो ये नाटकीय मामला हो जाता। जैसा कि समकालीन कविता में अक्सर हो जाता है। ‘अतीत की ओर’ कविता की इन आख़िरी चार पंक्तियों में तीन पंक्तियां परिप्रेक्ष्य तय कर रही हैं। तीसरी पंक्ति इनके बीच अपना काम कर जाती है।

‘तो मैं इस आग से कहाँ जाऊंगा कि मेरा एक अतीत है’ !

इस पंक्ति में भी – ‘इस आग से कहाँ जाऊंगा’ – यह केंद्रीय है। इस आग से ‘बचकर’ नहीं। इस आग से ‘गुज़रकर’ भी नहीं। केवल ‘इस आग से’।

[हालाँकि इस पंक्ति में ‘मैं’ कहने की कोई आवश्यकता नहीं थी।

‘तो इस आग से कहाँ जाऊंगा कि मेरा एक अतीत है’ – इतना काफ़ी होता।]

हम देख सकते हैं कि भाषा का कितना सावधानीपूर्वक प्रयोग हुआ है। इसे मन ही मन पढ़ें। एक विशिष्ट ताल के साथ। हम उस प्रभाव को देख पाएंगे।

एक आध बार तुकान्तता किस तरह कविता की आतंरिक लय को विचलित करने का काम करती है उसे भी देखें। इसी संग्रह की एक कविता है – छाँह जैसी धूप ।

छाँह जैसी धूप मेरे स्वप्न में थी

मैं आँखें मूंदे सो रहा था – उस समय

एक क्षण सहधर्मिता का हो रहा था।

अब जीवन जैसी मृत्यु मेरी आंख खोले –

एक कविता- पृष्ठ पर वह

मौन बोले

____

इस कविता का पूर्वार्द्ध गहरी लय से भरा हुआ है। ‘एक क्षण सहधर्मिता का हो रहा था’ – ये पंक्ति सहसा महावीर के क्रियमाण की अनुगूंज याद दिला देती है। कितनी सुन्दर पंक्ति है! परन्तु – ‘खोले-बोले’ के युग्म ने बाहरी स्तर पर तुकांतता ज़रूर बनाई लेकिन आतंरिक लय को आगे बढ़ाने उतना योग नहीं दिया। कवि से विनम्र निवेदन है कि वह इस तरह के ‘खोले-बोले’ क़िस्म के अनुप्रयोग न ही करे तो बेहतर होगा। जिस ‘आतंरिक लय’ का अनुसंधान ‘अर्थात’ की संरचना में चल रहा है वह अधिक महत्त्वपूर्ण है बनिस्बत इस तरह की तुकांततता के।

इस काव्य संग्रह को समझने के लिए पुरानी प्रणालियों से मदद हालाँकि ली जा सकती है पर वह पर्याप्त मालूम नहीं होती। यदि हम मैथ्यू आरनॉल्ड – जॉन ड्राइडेन – कूलरीज अथवा ईलियट तक के काम को देखें तो इस तरह की कविता सीधे सीधे किसी एक फ्रेम में फिट नहीं होगी। कभी कभी ऐसा लगेगा कि जॉन डन अथवा एंड्र्यू मार्वेल की मेटाफिज़िकल-पोएट्री की धारा को कोई भावात्मक अंश बहता हुआ उधर तक चला आया है। भारतीय परम्परा में काव्य के भीतर गद्य-पद्य और चम्पू सब रहते हैं। इसलिए बाहरी छंदबद्धता की मौजूदगी कोई उस तरह की निर्णायक भूमिका में नहीं होता जैसा कि अमूमन मान लिया जाता था। मूल बात है कि कोई आतंरिक लय का निर्माण हो रहा है अथवा नहीं। हालाँकि ये कहते हुए एक संकोच भी होता है चूँकि यदि ये सब इतना ही सीधा था तो बीसवीं शांति के आरम्भिक वर्षों में छंद को लेकर इतना विमर्श फ़िर क्यों चला ! निराला जी को तो कितनी ही कठिनाईयाँ झेलनी पड़ीं। वह सब स्वयं में एक विस्तृत विषय है। लेकिन उसपर विचार इसलिए आवश्यक है कि जिस ‘आतंरिक लय’ के हम बात कर रहे हैं उसका मूर्त्त प्रदर्शन कैसे होगा। ‘अर्थात’ को देखते हुए किसी समय हमें प्रतीत होगा कि हाइडेगर जिस ‘बींग’ के दर्शन की बात करते हैं- ठीक उसी ‘बींग’ के अनुसंधान का कोई काव्यात्मक उपक्रम चला हुआ है। ऐसा इसलिए भी लगेगा चूँकि इस काव्य संग्रह में कोई बाहरी उथल-पुथल तो छोड़िये उसका कोई संकेत तक भी नहीं है। एक आध जगह ‘संसद’ जैसे शब्द बाहरी प्रक्रियाओं का बहुत प्रतीक रूप में ही ज़िक्र करते हैं। शब्दों का इस्तेमाल ‘बेयर मिनिमम’ हुआ है। यानी हम ये नहीं कह सकते कि काव्य इन इन शब्दों पर विशेष रूप से निर्भर रहा। यह एक तरह से काव्य की ‘आतंरिक स्वायत्तता’ का उदाहरण भी है। बाह्य समाज की अनुपस्थिति की बात ‘नदी के द्वीप’ के सिलसिले में भी चली थी – अलबत्ता वह औपन्यासिक फ्रेम का मामला बनता था। इस काव्य संग्रह को मेरी समझ में शांत-चित्त होकर यदि बार-बार पाठ किया जाए तो कुछ ध्वनि-चित्र उभरने लगते हैं। वे सबके लिए भिन्न-भिन्न होंगे। यहाँ चर्चा हेतु जो लिखा गया है वह मेरे अपने ‘ध्वनि-चित्रों’ के अनुसार है। स्वाभाविक है कि सबके लिए वे एक से नहीं होंगे।

यदि कोई कहे कि मूल कथ्य क्या है तो लगता है कि – ‘लय’।

‘अर्थात्’ की भंगिमा इसलिए आकृष्ट करती है कि कवि ने बिम्बों की लड़ियों को अनुपस्थित सा कर दिया है। इन कविताओं को देखकर दर्शन की सूत्रपद्धति का स्मरण हो आता है। हालाँकि इनमें कोई दर्शन ढूंढना अपेक्षित नहीं है और न ही वो काव्य का अभीष्ट होता है। इन कविताओं की भावभूमि पूर्व-पश्चिम के द्वैत में नहीं उलझती। यानि इन कविताओं को देखकर कोई इन्हें ‘इस’ या ‘उस’ परम्परा में वर्गीकृत करने का प्रयास करे तो अधिक सफलता नहीं मिलेगी। चूंकि इनमें तंत्र और प्रेम का ‘राग’ भी मिल जाएगा , अस्तित्ववादी एकांत भी , यथार्थवादियों के लिए भौतिक तत्त्वों का उदात्तीकरण भी तथा इहलौकिक-रसवादियों हेतु देह संबंधी आयाम भी। ये सब कोई कठिन कार्य नहीं होता। काव्य का अर्थ संसार इतना संश्लिष्ट होता है कि उसमें बहुत से अर्थ मिल जाते हैं। अर्थ आरोपित भी किये जा सकते हैं। परन्तु जो कार्य जिद्दू कृष्णमूर्ति आदि ने अध्यात्म में किया वैसा ही कुछ इस संग्रह में होता दीखता है। बाहर के सब उपकरण कम से कमतर होते गए हैं। शुद्ध काव्य की गहन अभीप्सा है। पुराने सूत्रकार एक मात्रा कम होने पर भी प्रसन्न हो जाया करते थे। बात जितने घनत्व के साथ कही जाए सो उतनी ही अर्थगर्भ। ‘ अर्थात् को पढ़कर ही उसका अनुभव सम्भव है। काव्य-आलोचना के स्थापित निकष इस चर्चा में नहीं लाये गए हैं। उनपर अलग से बात की जा सकती है। अभिनवगुप्त मम्मट राजशेखर आदि से लेकर ड्राइडन कूलरीज ईलियट ईगलटन आदि तक का कार्य इस सबमें प्रयुक्त होना चाहिए। परन्तु उसके लिए अलग चर्चा की अपेक्षा है। सम्भवतः उस कार्य हेतु मेरी क्षमता भी नहीं। फिलवक्त इन कविताओं से उपजे मौन का आलंबन लिया जाये।

(परिचय :

कविता संग्रह – अर्थात् ।

कवि – अमिताभ चौधरी।

प्रकाशक- वाणी प्रकाशन।

प्रथम संस्करण – 2021

कवि श्री अमिताभ चौधरी जिला चुरू राजस्थान के हैं।

समीक्षा लेखक : अमनदीप वशिष्ठ)

error: Content is protected !!