सांझी लोक परम्परा से देवालयी परम्परा बनी

सांझी मूलतः एक लोक परम्परा है। यह कनागतों में उत्तर भारत के तमाम स्थानों पर किशोरियों द्वारा गोबर, फूल, पत्ती, रंग आदि से आकृति उकेरने का एक क्रम है। इसे समझने के लिए गांव-गिरांव में सांझी पूजन के समय लड़कियों द्वारा गाये जाने वाले गीतों के भाव महसूस करने की जरूरत है।

कुंवारे मन की वाणी है सांझी


सांझी कुंवारी लड़कियों के कुंवारे मन को वाणी देती है। सांझी उनके सुहाग की मंगल कामना से जुड़ी है। इसलिए सांझी को कुंवारे मन की अंगड़ाई का मनभावन त्योहार माना गया है। यह उनके भविष्य की सुखद कामनाओं को आकार देती है मानो ससुराल जाने का पूर्वाभ्यास हो। 

लड़कियों का ही खेल है सांझी



सांझी के चित्रण से लेकर उसकी पूजा, गायन और प्रसाद बनाने-बांटने तक का हर कार्य ये लड़कियां खुद करती हैं। सांझी के चित्र उसके भावी वैवाहिक जीवन की कल्पना पर आधारित होते हैं। उसके गीत भी कमोबेश यही संदेश देते हैं। डोली में बैठकर ससुराल जाना, मायके के बिछोह में उदास होना, भाई या सहेलियों की याद आना, ससुराल में सास का भय, कल्पना में झगड़ालू सास और दूसरे ससुरालियों की उपेक्षा के भाव सांझी के गीतों में पाए जाते हैं। कुंवारी कन्याएं इस त्योहार को बड़े ही हर्ष के साथ मनाती हैं, इसके लिए वे दोपहर से ही तैयारी शुरू कर देती हैं। 

अलग-अलग स्थानों पर भाव चित्रण में विविधता



सांझी बनाने के तरीके, चित्रों के प्रकार और गीत आदि में क्षेत्रीय विविधता भी दिखती है। राजस्थान और मालवा की लड़कियों के सांझी चित्रों में किले-कोट और दैनिक जीवन में प्रयोग की वस्तुओं का चित्रण किया जाता है। तो ब्रज में लड़कियां अपनी सांझी में राधा-कृष्ण की लीलाओं के चित्रण को वरीयता देती हैं।

पितृ पक्ष का पर्व है सांझी



भाद्रपद माह की पूर्णिमा से लेकर आश्विन माह की अमावस्या तक यानी पितृ पक्ष के दौरान सांझी बनाने की परंपरा है। सांझी बनाने में कुंवारी गाय का गोबर, फूल-पत्ती, रंग आदि का प्रयोग किया जाता है। रंगों की उपलब्धता न होने पर कई बार गोबर की आकृति को रंगने के लिए आटा सफेद रंग के लिए और हल्दी पीले रंग के लिए काम में ले ली जाती है। सांझी घर के बाहर मुख्यद्वार के दायीं ओर दीवार पर बनाई जाती है। गोबर को पतली पट्टियों के रूप में दीवार पर चिपकाकर सांझी के चित्र बनाये जाते हैं और सजाने के लिए फूल की पंखुड़ियों, पत्तियों आदि का प्रयोग किया जाता है। दरवाजे के बाहर बनी सांझी इस बात का प्रतीक भी है कि इस घर में कोई कुंवारी लड़की भी है। लड़की जब विवाह के बाद अपनी ससुराल चली जाती है और घर में कोई दूसरी कुंवारी लड़की नहीं है तो पितृ पक्ष के दौरान सूनी पड़ी दीवार लड़की की याद दिलाती है। ऐसे में लोग यह कामना करते हैं कि उनके घर में फिर से किसी कन्या का जन्म हो और द्वार पर सांझी के गीत गूंजें। 

उत्तर भारत के अधिकांश भागों में प्रचलित है सांझी



सांझी चित्रण एक प्राचीन परंपरा है जो ब्रज से शुरू होकर राजस्थान, गुजरात, मालवा और पश्चिमी मध्यप्रदेश आदि क्षेत्रों तक विस्तृत हुई। आम बोलचाल की भाषा में इसके लिए सांझी के बजाय झांझी शब्द का प्रयोग किया जाता है। मथुरा से थोड़ा सा पूरब की और जाइये यहां झेंझी और टेसू की कहानी सुनने को मिलेगी। इस कथा में टेसू नामक एक राक्षस झेंझी नाम की एक ब्राह्मण कन्या से विवाह का षड्यंत्र करता है। यहां के गीत इस कन्या के आंसुओं से भीगे हुए हैं।बदलते सामाजिक परिवेश और लोक रीतियों के निर्वहन के प्रति उदासीनता के कारण यह आज लुप्त होने के कगार पर पहुंच गई है।

देवालयी परम्परा में सांझी का प्रवेश


राधा रानी का दूसरा सबसे प्रचलित नाम है किशोरी। किशोरी ही वह स्वरूप है जिसमें ब्रजवासी राधा रानी को मानते और पूजते हैं। ऐसे में किशोरीजी की लीलाओं में किशोरियों के ज्यादातर खेल शामिल किए गए जैसे फाग, झूलन आदि। इसी क्रम में सांझी भी राधा रानी के खेलों में शुमार की गई। इस तरह मंदिरों में सांझी बनने का क्रम शुरू हुआ। ब्रज में वृंदावन और बरसाना के मंदिरों में सांचों के प्रयोग से सूखे रंगों द्वारा दर्शनीय सांझी बनाने का प्रचलन है। भक्ति साहित्य में भी सांझी चित्रण का उल्लेख मिलता है। 

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