भगवान श्रीकृष्ण की जन्मभूमि मथुरा नगरी सच में तीन लोक से न्यारी है। आमजन इसकी कहानी को बस श्रीकृष्ण से जोड़कर ही जानते हैं जबकि यह नगरी अपने अतीत में एक विशाल वैभवशाली विरासत को सहेजे हुए है जो श्रीकृष्ण के जन्म से कहीं प्राचीन है। मथुरा की इस अनकही कहानी को लेकर आया है हिस्ट्रीपण्डितडॉटकॉम। यह विस्तृत आलेख लिखा है श्री लक्ष्मीनारायण तिवारी ने। श्री तिवारी ब्रज के इतिहास और संस्कृति के पुरोधा हैं जो अपने कुशल निर्देशन में ब्रज संस्कृति शोध संस्थान (वृन्दावन) का संचालन कर रहे हैं। यह आलेख थोड़ा विस्तृत है अतः इसे यहां किश्तों में प्रकाशित किया जा रहा है। प्रस्तुत आलेख प्राचीन मथुरा की खोज की चौथी किश्त है।
प्राचीन मथुरा की खोज (चौथी किश्त)
प्राचीन मथुरा नगर को समझने के लिए बौद्ध संदर्भों की चर्चा करना आवश्यक है। बुद्ध के काल में मथुरा एक प्रतिष्ठित नगर था।
बौद्ध साहित्य में मथुरा
बौद्ध साहित्य से पता चलता है कि प्रारंभ में यहाँ के लोगों द्वारा बुद्ध का विरोध किया गया। भगवान बुद्ध जब मथुरा आये तो यहाँ के लोगों ने उनका कोई उचित सम्मान नहीं किया। स्वयं बुद्ध के द्वारा मथुरा के संबंध में दिये गये उपदेश से यह स्पष्ट होता है। बुद्ध ने मथुरा के पाँच दोष गिनाते हुए कहा है –
भिक्षुओं! यहाँ के मार्ग विषम हैं,धूल बहुत उड़ती है,कुत्ते बड़े भयंकर हैं,अज्ञानी यक्ष हैं और भिक्षा मुश्किल से मिलती है।’
उपगुप्त से प्रारंभ हुआ मथुरा में बौद्ध धर्म
हम यह समझ सकते हैं कि भागवत धर्म जिसे आज हम वैष्णव धर्म के रूप में पहचानते हैं, की मूल उद्भव भूमि पर बुद्ध की विराग और शून्य की बातों को कौन सुनता। वास्तव में मथुरा नगर का बौद्ध संस्कार प्रारंभ होता है प्रसिद्ध आचार्य उपगुप्त के समय से, जिन के संबंध में एक अनुश्रुति है कि उन्होंने ही सम्राट अशोक को बौद्ध धर्म की शिक्षा दी थी। बौद्ध ग्रंथ ‘दिव्यावदान’ के अनुसार उपगुप्त मथुरा के निवासी थे। उनके रूप और शील पर मथुरा की नगर गणिका वासवदत्ता मोहित हो गई थी।इस का रोचक वर्णन दिव्यावदान में मिलता है।
अशोक से कनिष्क के काल में पनपा बौद्ध धर्म
उस समय मथुरा बौद्ध धर्म की सर्वासि्तवाद परम्परा का प्रधान केंद्र बनकर उभरने लगा। सम्राट अशोक के काल से लेकर कुषाण सम्राट कनिष्क के काल तक मथुरा की भूमि पर बौद्ध धर्म अत्यंत फला फूला।
सही मायने में यह काल मथुरा के ‘नवनिर्माण’ का युग है जब मथुरा के शिल्पी कठोर पाषाण खंडों को तराशकर विशाल विहारों और स्तूपों के रूप में एक नये नगर को आकार दे रहे थे। इस नव संस्कारित होते मथुरा नगर के सामने मैं अनुभव करता हूँ कि तब पुराने मथुरा की पहचान कहीं खो सी गई होगी।
मूर्तिकला की मथुरा शैली का प्रारंभ
इसी वातावरण में मथुरा के कलाकारों द्वारा मूर्ति शिल्प की एक विशिष्ट शैली विकसित की गयी, जो मथुरा कला के रूप में प्रसिद्ध है। कुषाण सम्राटों के संरक्षण में सर्वप्रथम मथुरा के कलाकारों ने बुद्ध की उपास्य मूर्तियों का निर्माण किया। इस से पूर्व कला में बुद्ध के केवल प्रतीकों जैसे स्तूप, भिक्षापात्र, बोधिवृक्ष आदि का ही अंकन होता था। भारतीय कला को मथुरा की यह सबसे बड़ी देन है।
मथुरा संग्रहालय में बौद्ध मूर्तियों का संग्रह
कुषाण और गुप्त काल में मथुरा के कलाकारों ने बुद्ध की सर्वोत्कृष्ट मूर्तियों का निर्माण किया जिनमें से कई आज भी राजकीय संग्रहालय, मथुरा में सुरक्षित हैं। इस काल की पुरा संपदा का विशाल भंडार संग्रहालय में देखा जा सकता है। इसी संग्रह में बुद्ध की वह प्रतिमा भी है जिसे विश्व की सबसे सुन्दरतम बुद्ध प्रतिमाओं में से एक माना जाता है। गुप्त काल में निर्मित इस मूर्ति को ‘यशादिन्य’ नामक बौद्ध भिक्षु ने स्थापित किया था। जिसे सन् 1860 में जमालपुर टीले (मथुरा की वर्तमान कचहरी) से उत्खनन में प्राप्त किया गया।
विश्व की सबसे सुंदर बुद्ध प्रतिमा
इस प्रतिमा को लेकर मेरा स्वयं का भी अनुभव है। मैं जब भी मथुरा संग्रहालय में इस मूर्ति के सामने से गुजरता हूँ तो सदैव मेरे कदम ठिठक जाते हैं।
कितनी शान्तिः की आभा है इस मूर्ति में! बुद्ध के मुख पर कितनी करुणा है!श्रद्धा से प्रायः एक क्षण के लिए मेरी आँखें बंद हो जाती हैं। कहीं दूर से आते धम्म के शब्दों को मेरे कान मानो आज भी सुन रहे हों। मथुरा कला का इस से उत्कृष्ट उदाहरण आखिर और क्या हो सकता है।
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