ललित संप्रदाय के प्रवर्तक वंशी अली ने किया था प्राकट्य
बरसाना में स्थित लाडली श्री राधारानी के मंदिर के दर्शन तो आप सभी ने किए ही होंगे पर क्या आप लोग जानते हैं कि देश की राजधानी दिल्ली में भी राधारानी का प्राचीन मंदिर है! जिस तरह सोलहवीं सदी में श्री नारायण भट्ट जी ने बरसाना की राधारानी के श्री विग्रह का प्राकट्य किया था उसी तरह अठारहवीं सदी में दिल्ली में ललित संप्रदाय के प्रवर्तक संत श्री वंशी अली जी ने श्री राधा रानी जी के विग्रह का प्राकट्य किया था। जिस तरह बरसाना के राधारानी मंदिर में अष्टायाम पद्धति से लाडली जी की सेवा की जाती है ठीक उसी तरह से दिल्ली के राधारानी मंदिर में भी की जाती है। जिस तरह बरसाना में राधारानी को लाडली जी महाराज के नाम से जाना जाता है उसी तरह दिल्ली में भी लाडली जी महाराज के नाम से ही जाना जाता है। बरसाना में नारायण भट्ट जी के शिष्य नारायण दास जी के वंशज राधारानी की सेवा करते हैं वहीं दिल्ली में ललित संप्रदाय के प्रवर्तक आचार्य संत वंशी अली के वंशज सेवा करते हैं। जहां इस वर्ष बरसाना में आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को लाडली जी का 455वां प्राकट्योत्सव मनाया जाएगा वहीं दिल्ली में इस वर्ष वैसाख शुक्ल पूर्णिमा को लाडली जी का 301वां प्राकट्योत्सव मनाया जाएगा। आइए विस्तार से जानते हैं दिल्ली में स्थित इस प्राचीन लाडली जी मंदिर और ललित संप्रदाय के प्रवर्तक आचार्य श्री वंशी अली के बारे में:
चांदनी चौक के कटरा नील इलाके में स्थित है लाडली जी मंदिर
पुरानी दिल्ली के चांदनी चौक में मिर्जा गालिब के मुहल्ले के नाम से जानी जाने वाली गली बल्लीमारान के सामने कटरा नील नाम का इलाका पड़ता है। पुरानी दिल्ली की तंग गलियों वाले इस कटरा नील के कई गलियों में एक गली है जो कहलाती है गली घंटेश्वर। इसी लगी घंटेश्वर में स्थित है लाडली जी का मंदिर।
मंदिर की उपासना पद्धति
दिल्ली में स्थित इस राधारानी मंदिर की उपासना पद्धति ब्रज के मंदिरों के समान ही है। जितने आयोजन वर्ष भर में बरसाना के राधारानी मंदिर में होते हैं उतने ही आयोजन इस मंदिर में भी किए जाते हैं। अक्षय तृतीया को चरण दर्शन कराए जाते हैं। वैसाख शुक्ल पूर्णिमा को पाटोत्सव मनाया जाता है। होली, झूलन, नौका विहार, सांझी जैसे सभी उत्सव यहां श्रद्धाभाव से मनाए जाते हैं। वर्तमान में वंशी अली की नवमी पीढ़ी के वंशज नवीन गोस्वामी इस मंदिर की सेवा का कार्य संभालते हैं।
कौन थे वंशी अली जिन्होंने राधा रानी के विग्रह का किया था प्राकट्य
वंशी अली का वास्तविक नाम गोस्वामी वंशीधर था। इनके पूर्वज मिश्र नारायण गोस्वामी मूलतः लाहौर के निवासी थे। लाहौर में किशोरी रमण जी के विग्रह की उपासना करने वाले मिश्र नारायण भक्तों में श्रेष्ठ थे, उनका जिक्र भक्तमाल में भी मिलता है। संवत 1455 विक्रमी में मिश्र नारायण लाहौर छोड़कर वृंदावन आ गए। वृंदावन में इन्होंने चीर घाट के पास एक मंदिर बनवा पर किशोरीरमण जी को विराजमान कर दिया और वृंदावन में रह ठाकुर सेवा में संलग्न रहे। इनकी आगामी पीढ़ियां भी इनका अनुसरण करती रहीं। इनकी सातवीं पीढ़ी में प्रद्युमन जी का जन्म हुआ। इनके हजारों शिष्य थे जिनमें से बड़ी संख्या दिल्ली शहर में रहने वाले भक्तों की थी। अपने दिल्ली निवासी शिष्यों के आग्रह पर प्रद्युमन जी वृंदावन छोड़कर दिल्ली में आकर रहने लगे। इनके शिष्यों में इनके निवास और किशोरी रमण जी की सेवा के लिए दिल्ली के कटरा नील इलाके में एक हवेलीनुमा मंदिर बनवा दिया। इन्हीं प्रद्युमन जी के घर इसी कटरा नील वाली हवेली में संवत 1764 विक्रमी में ललित संप्रदाय के प्रवर्तक आचार्य वंशी अली का जन्म हुआ।
लाडली जी के विग्रह का प्राकट्य
वंशी अली का मूल नाम वंशीधर गोस्वामी था। सोलह वर्ष की अवस्था में वंशीधर का विवाह हुआ। कहा जाता है कि विवाह के कुछ मास के उपरांत एक रात राधारानी ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिए। स्वप्न ने राधारानी ने उन्हें बताया कि उनका विग्रह उन्हीं की हवेली में स्थित एक जामुन के पेड़ के नीचे है। स्वप्न में राधा रानी ने उन्हें आज्ञा दी कि उस विग्रह को निकाल कर सेवा करें। वंशीधर गोस्वामी ने स्वप्न में प्राप्त निर्देश के अनुसार जामुन के पेड़ के नीचे खुदाई कराई तो उन्हें श्री राधा रानी का विग्रह प्राप्त हुआ। वंशीधर गोस्वामी ने विधि विधान ने राधारानी के विग्रह को उसी मंदिर में विराजमान किया और वैष्णव संप्रदाय में प्रचलित अष्टायाम पद्धति से सेवाकार्य कराना शुरू कर दिया।
ब्रज आगमन और वंशीधर से वंशी अली तक की यात्रा
कुछ समय उपरांत वंशीधर गोस्वामी दिल्ली से ब्रज में आ गए। किशोरीरमण जी का विग्रह जिन्हें इनके पिता प्रद्युमन जी वृंदावन से दिल्ली के गए, को ये अपने साथ ब्रज के आए वृंदावन में चीर घाट पर पुनः उसी स्थान पर विराजित कर दिया जो आगे चलकर ललित कुंज कहलाया। इन्होंने ब्रज में वृंदावन, बरसाना और ऊंचागांव आदि स्थानों पर रहते हुए श्रीजी की उपासना शुरू कर दी। बरसाना में गांव के घूरे पर रहकर इन्होंने बारह वर्ष तक तपस्या की थी। एक बार वृंदावन में जब ये यमुना स्नान करके लौट रहे थे तब कालीदह के पास राधारानी की प्रधान सखी ललिता जी ने इन्हें दर्शन दिए और मंत्र दीक्षा देकर अपना शिष्य बनाया।
“जय जय राधा ललिता वंशी श्याम!
श्री वृंदावन निज सुख धाम!!”
ललिता जी से मंत्र दीक्षा लेने के बाद ये वंशी अली कहलाने लगे। अली का अर्थ होता है सखी या सहेली। इन्होंने राधा रानी की सखी के भाव के साथ उपासना शुरू कर दी। इन्होंने बड़ी संख्या में भक्ति के पद रचे जो आज भी दिल्ली स्थित मंदिर के साथ साथ ब्रज के तमाम देवालयों में समाज गायन में गाए जाते हैं। इनकी एक हस्तलिखित पुस्तक दिल्ली स्थित मंदिर में आज भी संरक्षित बताई जाती है।
वंशी अली का ललित संप्रदाय
वंशी अली की शिष्य परंपरा ललित संप्रदाय के नाम से जानी गई। इनके शिष्य सखी भाव से राधारानी की उपासना करते हैं। एक बार जयपुर जाने पर वहां के राजा सवाई जयसिंह ने इन्हें जयपुर में राधारानी का एक मंदिर बनवा कर दिया और आठ गांव की जमींदारी मंदिर के संचालन के लिए प्रदान की। वंशी अली के बाद उनके पुत्र पुण्डरिकाक्ष, पौत्र केशवराय, प्रपौत्र लाडली प्रसाद ने ललित संप्रदाय को आगे बढ़ाया। लाडली प्रसाद जयपुर में जा बसे और वहां के मंदिर और संप्रदाय का संचालन करने लगे। आज भी ललित संप्रदाय के मुख्य आचार्य संजय गोस्वामी जयपुर में ही निवास करते हैं और मंदिर की व्यवस्था करते हैं।
ललित संप्रदाय के मुख्य मंदिर
वर्तमान में ललित संप्रदाय के चार मुख्य मंदिर हैं। पहला मंदिर दिल्ली के कटरा नील में स्थित राधारानी मंदिर है जिसके बारे में यह आलेख लिखा जा रहा है। दूसरा मंदिर जयपुर के रामगंज बाजार, बड़ी चौपड़ में स्थित राधारानी मंदिर है। यह स्थान ललित संप्रदाय की प्रधान गद्दी भी है। तीसरा मंदिर वृंदावन के चीरघाट पर स्थित बड़ा रसमंडल के सामने स्थित वह स्थान है जहां सर्वप्रथम इनके पूर्वज मिश्र नारायण जी के लाडले किशोरीरमण जी विराजे थे। कालांतर में यह स्थान ललित कुंज के नाम से जाना गया। चौथा मंदिर वृंदावन के प्रताप बाजार में स्थित राधा गोविंद मंदिर है। इस मंदिर को शाहजहांपुर स्टेट का मंदिर भी कहते हैं। शाहजहांपुर स्टेट के खजांची रूपकिशोर की माता दुर्गा देवी ने इस मंदिर का निर्माण करा कर लाडली प्रसाद जी को भेंट किया था।
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