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बसौ मेरे नैनन में नंदलाल

वृंदावन के मीरांबाई मंदिर में स्थित मीरांबाई का चित्रपट एवं विग्रह।

मीरांबाई की 525 वीं जयंती पर विशेष

गोपाल शरण शर्मा (साहित्यकार)

रसमूर्ति भगवान श्रीकृष्ण के प्रेम- रस की एक बूंद प्राप्ति के लिए जहां साधक अनेकानेक वर्षों तक स्वातिजललुब्ध चातक की भांति कठोर तपस्या और प्रतीक्षा करता है, वहीं सच्चिदानंदघन मुरलीमनोहर अपने भक्तों के निश्च्छल, निर्मल, निष्काम प्रेम के वशीभूत हो कर उसके आगे-पीछे फिरते नजर आते हैं।

‘प्रेम’ देखने में, लिखने में, ढाई अक्षर का एक लघु सा प्रतीत होने वाला शब्द लगता है,लेकिन जब व्याख्या करो तो एक महाग्रंथ भी कम लगे।

रागानुगा प्रेमा-भक्ति की धारा तो राधा-कृष्ण और गोपियों के समय से ही अजस्र रूप से प्रवाहित है, जिनका प्रेम जगत विख्यात है। परंतु कालांतर मेंआज से 525 वर्ष पहले कृष्ण प्रेम की एक ऐसी साधिका ने जन्म लिया जो अपने इष्ट के प्रेम में साधना की उच्चतम अवस्था को प्राप्त हो कर सामजिक- पारिवारिक बंधनों को तोड़ कर अपने प्रेमास्पद के प्रेम में इतनी रच-बस गई कि आने वाली प्रत्येक पीढ़ी उसे त्याग,समर्पण प्रेम और सरलता के उच्चतम आदर्शों की स्थापयित्री मानने लगी। बात अगर कृष्ण भक्तों की चले तो मीराबाई की चर्चा के बिना वह अपूर्ण ही रहेगी। अगर राधा-कृष्ण एक दूसरे के पूरक और एक दूसरे के बिना अधूरे हैं, तो मीरा के नटवर नागर भी बिना मीरा के पूर्ण नहीं कहे जा सकते।

राजस्थान की भूमि को मीरांबाई की जन्मस्थली होने का गौरव प्राप्त है। मेड़तिया राजवंश के राव दूदा के कनिष्ठ पुत्र रत्नसिंह एवं माता बीरकुंवरि के यहाँ मीरा का जन्म हुआ। सूर्य के समान तेजोमयी आभा से युक्त बालिका का मुखमण्डल देखकर सभी आनंद के सागर में डूब गये। उन्हें क्या ज्ञात था कि एक दिन यह बालिका मीराबाई के रूप में विख्यात होकर भक्त शिरोमणियों में अपना नाम अंकित कराएगी। मीरा होना आसान न था। लगभग 5 वर्ष की आयु में कृष्ण प्रेम का बीजांकुर मीरा के हृदय में रोपित हो गया था। बालपन में खेलते खेलते माता से प्रश्न किया: मेरा वर (दूल्हा) कौन है? माता ने सांवले सलोने कृष्ण की प्रतिमा को दिखाते हुए कह दिया कि ये तेरा वर है। बालमन उस प्रतिमा की मनमोहक छवि को अपने हृदय- पटल पर अंकित कर बैठा। बस यहां से लगन लग गयी कृष्ण प्रेम की। एक बार जब किसी की लगन लग जाये तो उसे छुड़ाना आसान नहीं होता, और फिर ये तो प्रेम की लगन थी।

अपनी पुत्री को विवाह योग्य देख माता को उसके विवाह की चिंता हुई। परंतु मीरा तो अनश्वर अविनाशी कृष्ण का वरण कर चुकी थीं, उनके लिए लौकिक विवाह संबंध महत्वहीन था-

ऐसे वर को के बरूं, जो जनमै मर जाए।

वर वरिए गोपालजी,म्हारो चुड़लो अमर ह्वै जाय।।

खैर किसी प्रकार मीरा को कुल की मान-मर्यादा समझा कर उसका विवाह चित्तौड़ राजवंश में युवराज भोजराज के संग कर दिया गया। मीरा को सांसारिकता में बांधने का प्रयास किया जाने लगा। वर्ष भर के उपरांत राजा भोजराज की मृत्यु हो गई। मीराबाई का अधिकांश समय श्रीकृष्ण के विग्रह की भावपूर्ण सेवा में गुजरने लगा।

प्रेम लोक –रीति, बंधन, लाज आदि से मुक्त होता है। वह तो गगन में विचरते पंक्षी की तरह है। उन्मुक्त उडता हुआ। राजवंश में इस प्रेम को मान्यता नहीं मिली। लोकाचार और कुल मर्यादा के भंग होने का भय और मीरा  की भक्ति से राजघराना नाराज हुआ। मीरा को मारने का प्रयास हुआ। मीरा के शुभचिंतकों ने उसे इस बात की जानकारी दी।

दुःखी मीरा ने  राजवंश का त्याग कर दिया और चल पड़ी  वृन्दावन की ओर, जहाँ के कण-कण में उनके प्रेमी श्री कृष्ण की रूप-रस-गंध माधुरी समाहित थी। जन्मों की अभिलाषा पूर्ण करने को उसके पग बढ़ चढ़े और कंठ से स्वर फूट पड़े 

आली मोहे लागे वृंदावन नीकौ।”

ब्रजभूमि के दर्शन कर मीरा आनंदित हो गयीं। वे कुछ समय तक वृंदावन रहीं। यहां उनकी भेंट चैतन्य महाप्रभु के पार्षद षडगोस्वामियों में से एक श्री जीव गोस्वामी के साथ हुई। जब वे जीव गोस्वामी से मिलने गयी तो उनके शिष्य ने कहा कि गुरुजी स्त्री से नहीं मिलते। इस पर हंसते हुये मीराबाई ने कहा कि- वासुदेवः पुमानेकः स्त्रीमयमितर: जगत्। अर्थात मैंने तो यह सुना था कि वृंदावन के पुरुष रूप में एकमात्र गोविंद ही हैं व अन्य सब गोपियां स्वरूप है। लगता है तुम्हारे गुरुदेव श्रीकृष्ण के पट्टीदार पुरुष है, हम भी श्रीकृष्ण के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष से मिलना नहीं चाहतीं। यह सुनते ही जीव गोस्वामी ने बाहर आकर उनसे आदरपूर्वक भेंट की।

राजस्थान के क्षितिज पर  प्रगट होकर भक्तिमति मीराबाई  ने भक्ति की ऐसी भागीरथी प्रवाहित की  कि उसमें अवगाहन कर सब धन्य हो गये। सामाजिक बंधनों को तोड़ मीरा ने जो अद्भुत प्रेम श्रीकृष्ण से किया है उसने मीरा बाई को श्रीराधारानी के समकक्ष खड़ा कर दिया है। उनके कीर्ति सौरभ से आज समस्त जगत लाभान्वित हो रहा है।मीरा द्वारा रचित पद्यरूप  प्रेमोद्यान के अनेक पुष्प आपस में गुंथ कर उनके आराध्य सांवले सलोने गिरधर नागर का श्रृंगार करते हैं।

मीरा की आस केवल इतनी ही रही –

बसो मेरे नैनन में नंदलाल। 

मोहनी मूरत, साँवरी सूरत, नैना बने बिसाल। 

अधर सुधारस मुरली राजत, उर बैजंती माल॥ 

छुद्रघंटिका कटितट सोभित, नूपुर सबद रसाल। 

मीरां प्रभु संतन सुखदाई भगत बछल गोपाल॥

गोपाल शरण शर्मा (साहित्यकार)

गोपाल शरण शर्मा (साहित्यकार)

(हिस्ट्री पंडित डॉटकॉम के लिए यह आलेख गोपाल शरण शर्मा ने लिखा है, गोपाल साहित्यकार है और वृंदावन स्थित ब्रज संस्कृति शोध संस्थान के प्रकाशन अधिकारी हैं।)

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