भगवान श्रीकृष्ण की जन्मभूमि मथुरा नगरी सच में तीन लोक से न्यारी है। आमजन इसकी कहानी को बस श्रीकृष्ण से जोड़कर ही जानते हैं जबकि यह नगरी अपने अतीत में एक विशाल वैभवशाली विरासत को सहेजे हुए है जो श्रीकृष्ण के जन्म से कहीं प्राचीन है। मथुरा की इस अनकही कहानी को लेकर आया है हिस्ट्रीपण्डितडॉटकॉम। यह विस्तृत आलेख लिखा है श्री लक्ष्मीनारायण तिवारी ने। श्री तिवारी ब्रज के इतिहास और संस्कृति के पुरोधा हैं जो अपने कुशल निर्देशन में ब्रज संस्कृति शोध संस्थान (वृन्दावन) का संचालन कर रहे हैं। यह आलेख थोड़ा विस्तृत है अतः इसे यहां किश्तों में प्रकाशित किया जा रहा है। प्रस्तुत आलेख प्राचीन मथुरा की खोज की पांचवीं किश्त है।
प्राचीन मथुरा की खोज (पांचवीं किश्त)
मथुरा प्रथम शताब्दी ईस्वी में एक बौद्ध तीर्थ के रूप में विकसित हो चुका था। नगर की यह स्थिति आगे आने वाली कई शताब्दियों तक ऐसी ही बनी रही, हालांकि कुषाण साम्राज्य के पतन के साथ ही मथुरा में बौद्ध धर्म की उन्नति चरम शिखर पर पहुंच कर धीरे धीरे घटने लगी थी।
फाहियान और ह्वेनसांग के यात्रा वृत्त
इस युग के बहुत बाद चौथी शताब्दी में चीनी यात्री फाहियान और उसके बाद सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ह्वेनसांग मथुरा आया। इन दोनों प्रसिद्ध चीनी यात्रियों ने मथुरा की यात्रा बौद्ध तीर्थ के रूप में की थी। इन के यात्रा वृत्त तत्कालीन मथुरा नगर में बौद्ध धर्म की स्थिति को समझने के लिए मूल्यवान सूचनाएँ देते हैं। फाहियान ने मथुरा के बीस बौद्ध विहारों का उल्लेख किया है जो नगर के विविध स्थानों पर स्थित थे। ह्वेनसांग भी बौद्ध विहारों की संख्या बीस ही बतलाता है। आप को यह जानकर सुखद आश्चर्य होगा कि अब तक मथुरा के पुरातात्त्विक उत्खननों में लगभग बीस ही बौद्ध विहारों की पहचान हो सकी है।
मूर्तियों के अभिलेखों से हुई पुष्टि
यह संभव हुआ मथुरा और उसके आसपास के क्षेत्रों से उत्खनन में प्राप्त शिलालेखों एवं मूर्तियों के पाटों पर उत्कीर्ण अभिलेखों के आधार पर। इस से चीनी यात्रियों के मथुरा सम्बन्धी विवरण प्रामाणिक सिद्ध होते हैं। मथुरा के विभिन्न स्थानों से प्राप्त शिलालेखों और अभिलिखित मूर्तियों से यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि जिस विहार का नाम जिस शिलालेख या अभिलिखित मूर्ति से प्राप्त होता है, संभवतः उस विहार के नष्ट हो जाने पर वह मूर्ति या शिलालेख वहीं पड़ा रहा होगा। इस लिए आज हम इन मूर्तियों और शिलालेखों के प्राप्ति स्थानों को आधार बनाकर मथुरा में उन स्थानों की पहचान कर सकते हैं, जहाँ कभी यह बौद्ध विहार स्थित थे।
वर्तमान में इन स्थानों की होती पुष्टि
हम इस तालिका के माध्यम से इसे समझने का प्रयास कर सकते हैं –
यशाविहार – कटरा श्रीकृष्ण जन्म स्थान, मथुरा
हुविष्कविहार – कचहरी, मथुरा
रौशिक विहार – अडींग, मथुरा
आपानक विहार – भरतपुर गेट, मथुरा
खंड विहार – महोली, मथुरा
प्रावारक विहार – महोली, मथुरा
कोष्टुकीय विहार – कंसखार के पास, मथुरा
चूतक विहार – माता गली, मथुरा
सुवर्णकार विहार – यमुना बाग, सदर, मथुरा
श्री विहार – गऊघाट, मथुरा
अमोहस्सी विहार – श्रीकृष्ण जन्म स्थान, मथुरा
मधुरावण विहार – चौबारा टीला, मथुरा
श्रीकुंड विहार – कचहरी, मथुरा
धर्महस्तिक विहार – नौगाँव, मथुरा
महासंघि कोका विहार – पालीखेड़ा, गोवर्धन, मथुरा
पुष्यदत्ता विहार – सोंख, मथुरा
लघ्यस्क्क विहार – मंडी रामदास, मथुरा
धर्मक पत्नी की चैत्य कुटी – मथुरा जंक्शन
उत्तर हारुष विहार – आन्यौर, गोवर्धन, मथुरा
गुह विहार -सप्तऋषि टीला, मथुरा
यह तालिका आज भी हमें उस कल्पना लोक में ले जाती है, जहाँ हम मथुरा को एक बौद्ध तीर्थ के रूप में सजीव होता देख सकते हैं।
सातवीं सदी तक मथुरा में मौजूद थे बौद्धकालीन ढांचे
ह्वेनसांग अपने विवरण में सम्राट अशोक के द्वारा निर्मित मथुरा के तीन स्तूपों का भी वर्णन करता है, हालांकि अभी तक इन की पहचान नहीं हो सकी है, पर इस से यह स्पष्ट समझा जा सकता है कि सातवीं शताब्दी के प्रारंभ तक मथुरा नगर में मौर्यकालीन बौद्ध ढ़ाँचे मौजूद थे। ह्वेनसांग बीस ली अथवा चार मील की परिधि में स्थित मथुरा नगर की चर्चा करता है। किन्तु उसने यहाँ उस समय पाँच देव मन्दिरों को भी देखा था। जो एक महत्वपूर्ण तथ्य है।
ह्वेनसांग के समय पर घट गई थी बौद्ध भिक्षुओं की संख्या
यदि फाहियान और ह्वेनसांग के मथुरा सम्बन्धी विवरणों को तुलनात्मक रूप में देखा जाए तो, हम पाते हैं कि फाहियान मथुरा के बीस बौद्ध विहारों में लगभग तीन हजार भिक्षुओं के निवास करने का उल्लेख करता है, जब कि ह्वेनसांग विहारों की संख्या तो बीस ही बतलाता है, लेकिन इनमें केवल दो हजार भिक्षुओं के निवास करने की जानकारी देता है। यह अन्तर मथुरा में बौद्ध धर्म की शनैः शनैः होती अवनति की ओर संकेत करता है। पतन की यह प्रक्रिया आनेवाले समय में और अधिक तीव्र हुई होगी।
दसवीं सदी में बौद्ध धर्म बन गया था अतीत
मैं अनुभव करता हूँ कि 10 वीं शताब्दी तक आते आते मथुरा में बौद्ध धर्म पूरी तरह से अतीत की स्मृति बन चुका था। हमें याद रखना होगा कि 11 वीं शताब्दी के प्रारंभ में भारत आया विद्वान यात्री अलबरुनी मथुरा को श्रीकृष्ण के जन्म स्थान के रूप में याद करता है, न कि एक बौद्ध तीर्थ के रूप में।