गोवर्धन की परिक्रमा में सैकड़ों दर्शनीय स्थल हैं। इनमें से ज्यादातर पौराणिक महत्त्व के हैं। जानकारी के अभाव में लोग गोवर्धन आकर भी इन स्थानों के दर्शन नहीं कर पाते हैं। कई बार परिक्रमा पूरी करने की जल्दबाजी में लोग इन स्थानों पर ध्यान भी नहीं देते हैं। गोवर्धन की परिक्रमा में पड़ने वाला ऐसा ही एक महत्त्वपूर्ण स्थान है नारद कुंड। एक प्राचीन स्थान है। यहां का महत्त्व बहुत अधिक है। इस स्थान पर आने पर असीम शांति का अनुभव होता है। कहते हैं कि नारद कुंड में स्नान कर नारद जी के दर्शन करने से अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है।
नारद कुंड की उपासना का मंत्र
“यत्रैव नारदो नित्यं स्नानम कृत्वा तपश्चरन।
यतो नारद कुंडाख्यम सर्वेहि फलदायकम।।”
नारद कुंड की पौराणिक मान्यताएं
भविष्य पुराण के अनुसार नारद जी ने परम् भक्त बालक ध्रुव को यहीं पर दीक्षा दी थी। श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कंद के छठवें अध्याय में दैत्यराज हिरण्यकश्यप की कथा आती है। इस विवरण के अनुसार नारद मुनि ने हिरण्यकश्यप की पत्नी कयाधु को इसी स्थान पर सत्संग सुनाया था। स्कंध पुराण के द्वितीय वैष्णव खण्ड में उद्धव जी कहते हैं कि “मैं नारद जी के सानिध्य में नारद कुंड पर निवास करता हूँ।” नारद जी ने इसी स्थान पर नारद भक्ति सूत्र की रचना की थी। नारद जी इसी स्थान पर रह कर श्यामा श्याम की नित्य विहार लीला का सखी भाव से अवलोकन किया करते थे। यही वह स्थान है जहां नारद जी ने निम्बार्काचार्य जी को गोपाल मंत्र की दीक्षा दी थी।
प्रथम मन्दिर का निर्माण
नारद जी की मूर्ति का प्राकट्य सम्वत 1886 में गोवर्धनशरणदेव ने किया था। इन्हें स्वप्न में नारद जी ने आदेश दिया। आदेश के अनुसार पांच वृक्षों के मध्य खुदाई करने पर नारद जी की प्रतिमा प्राप्त हुई। तब यहां नारद जी का मन्दिर बनवाया गया। उसी समय पहली बार कुंड के घाट पक्के किये गए। गोवर्धनशरणदेव जी श्री बांके बिहारी जी के प्राकट्य कर्ता स्वामी हरिदास जी महाराज की परंपरा से थे। गोवर्धनशरणदेव जी ने नारद जी के मन्दिर का महंत अपने प्रशिष्य कृष्णबल्लभशरणदेव को नियुक्त किया। तब से उन्हीं की परंपरा के साधक, सन्त महंत यहां रहते चले आ रहे हैं।
वर्तमान स्थिति
कालांतर में यह स्थान बड़ी बदहाल अवस्था को प्राप्त हो गया। करीब तीस वर्ष पहले यहां विपन्नता का साम्राज्य हो गया था। स्थिति यह हो गई थी कि रसोई में राशन और बर्तन का अभाव था तो मन्दिर में देव विग्रह की पोशाक तक साबुत नहीं थी। उसी समय सन 1990 में वर्तमान महंत दीनबन्धुशरणदेव का यहां आगमन हुआ। उनके काका गुरु बाबा जयबिहारीदास ने इनको आश्रम की व्यवस्था का भार सौंपा। महन्तजी ने 12 वर्ष तक भागवत पाठ और गिरिराज परिक्रमा के साथ साधना की। उसके बाद मन्दिर के लिए संसाधन जुटने शुरू हुए। वर्ष 2011 से 16 के मध्य यहां जीर्णोद्धार और नवनिर्माण का क्रम चलता रहा। आज यह स्थान भव्य और दिव्य स्वरूप में हैं।