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मथुरा की कहानी भाग सोलह

पूर्व कथा

पिछले भागों में हम यदुवंश, श्रीकृष्ण की कथा, महाजनपदकाल, मौर्य साम्राज्य, शुंगवंश, मथुरा के मित्रवंश, मथुरा के शक, दत्त, कुषाण, नाग, गुप्त वंश, कन्नौज के मौखरि, हर्षवर्धन, कन्नौज के गुर्जर-प्रतीहार, महमूद गजनवी का आक्रमण, कन्नौज के गाहड़वाल, दिल्ली सल्तनत के गुलाम, खिलजी, तुगलक, सैय्यद एवं लोदी आदि वंशों के बाद मुगल वंश के बाबर, हुमायूं, सूरी वंश के शेरशाह आदि की कहानी बता चुके हैं। इसके बाद अकबर की उदार नीति से ब्रज में वैभव का संचार हुआ जो जहांगीर के समय भी जारी रहा। उसके बाद की कहानी औरंगजेब की है जो ब्रज के लिए एक काले अध्याय से कम नहीं है। औरंगजेब के कमजोर उत्तराधिकारियों के कारण ब्रज के जाटों ने मजबूत सत्ता स्थापित की और पहले सिनसिनी और बाद में थून को गढ़ बनाया। जाट नेता चूड़ामन की मृत्यु के बाद जाट सत्ता का नेतृत्व अब बदनसिंह के हाथ में आया। अब आगे…

मराठों का दिल्ली पर हमला

1737 ईस्वी में मराठों ने उत्तर भारत पर आक्रमण किया और वे दिल्ली तक पहुंच गए। बाजीराव भदावर में पहुंचा और उसने शिकोहाबाद तथा जलेसर के इलाकों को लूट लिया। बादशाह मुहम्मद शाह ने दिल्ली से खानदौरान, बंगश और सआदत खां के नेतृत्व में मराठों को रोकने के लिए सेना भेजी। ये तीनों सेनापति मथुरा में इकट्ठे हुए। पर बाजीराव मुगल सेना को पीछे छोड़कर शीघ्रता से 9 अप्रैल 1737 ईस्वी को दिल्ली जा पहुंचा। घबराकर मुहम्मदशाह ने उससे सन्धि वार्ता शुरू कर दी। इसी बीच मुगलों और मराठों के बीच कुछ सैन्य मुठभेड़ भी हुईं जिनके कारण बाजीराव अजमेर की तरफ चला गया। जल्द ही बाजीराव को दक्षिण लौट जाना पड़ा। निजाम आसफजाह को अब वजीर का पद दिया गया और मराठों को रोकने का दायित्व सौंपा गया। आगरा की सूबेदारी भी अब जयसिंह से छीनकर निजाम के पुत्र गाजीउद्दीन को सौंप दी गई। पर निजाम मराठों को रोकने में असफल रहा। अंत में चम्बल से लेकर नर्मदा तक के भूभाग पर मराठों का आधिपत्य स्वीकार कर लिया गया। 

नादिरशाह का आक्रमण

नादिरशाह ने भारत पर भीषण आक्रमण किया। उसे रोकने के लिए बादशाह ने सआदत खां के नेतृत्व में सेना भेजी। पर इस सेना को राजपूतों और मराठों से सहायता न मिल सकी। करनाल में 13 जुलाई 1739 ईस्वी को भयंकर युद्ध हुआ जिसमें दिल्ली की फौज की पराजय हुई। मुहम्मद शाह ने सन्धि की बात शुरू की पर उसे कैद कर लिया गया। नादिरशाह ने बीस करोड़ रुपया नगद मांगा। नादिरशाह मुगल बादशाह के साथ दिल्ली पहुंचा। जहां उसने कत्लेआम और लूटपाट का हुक्म दिया। एक ही दिन में बीस हजार लोगों की नृशंस हत्या की गई। नादिरशाह दो माह तक दिल्ली में रुका जहां वह अमीरों से जबरन वसूली करता रहा। यह लुटेरा दिल्ली से 15 करोड़ रुपया नगद और पचास करोड़ के जवाहरात लेकर ईरान लौटा।

मथुरा में नादिरशाह के अत्याचार

नादिरशाह के आक्रमण से मथुरा भी अछूता नहीं रहा। उसके सिपाही मथुरा-वृन्दावन तक पहुंचे जहां उन्होंने जबर्दस्ती धन वसूल किया। यहां ब्रजभाषा के प्रसिद्ध कवि घन आनन्द का जिक्र प्राप्त होता है। घन आनन्द मुगल बादशाह के मीर मुंशी रह चुके थे। बादशाह से अनबन हो जाने के कारण वे दिल्ली छोड़कर वृन्दावन चले आये थे जहां वे विरक्त का जीवन बिता रहे थे। नादिरशाह के सिपाहियों ने उन्हें धनवान समझ कर उनसे धन की मांग की। धन न मिलने पर उन्होंने कवि घन आनन्द का हाथ काट डाला था जिससे उनकी मृत्यु हो गई थी। चाचा हित वृन्दावनदास आदि कवियों की रचनाओं में भी नादिरशाही अत्याचारों का वर्णन मिलता है। 

बदनसिंह का शासनकाल (1722- 55 ईस्वी)

ब्रज प्रदेश पर बदनसिंह का शासन 33 वर्ष तक रहा। उसने मुगल बादशाह तथा सवाई जयसिंह के साथ मेल करके शांति स्थापित की और अपनी सत्ता को मजबूत किया। थून और सिनसिनी के स्थान पर उसने डीग, कुम्हेर और भरतपुर में किले बनवाये। ये तीनों किले सामरिक दृष्टि से बेहद मजबूत थे। बदनसिंह ने मथुरा जिले में सहार, कामर, कोटवन आदि स्थानों पर भी गढ़ बनवाये। वृन्दावन में उसने एक विशाल हवेली बनवाई। 1755 ईस्वी में उसकी मृत्यु हुई। उसके बाद सूरजमल राज्य का स्वामी हुआ। हालांकि सूरजमल अपने पिता के जीवित रहते हुए ही तमाम राज्यशक्ति का संचालन किया करता था। यह सूरजमल ही था जिसने ब्रज में एक स्थाई और शक्तिशाली राज्य स्थापित कर दिया था।

सूरजमल और जाट शक्ति का उत्थान

सूरजमल (1755- 63 ईस्वी) प्रतापी शासक हुआ। उसके समय पर जाटों की शक्ति का बड़ा विस्तार हुआ। उसके समय पर फर्रुखाबाद के पठानों के दो गुटों में आपसी झगड़ा बहुत बढ़ गया था। उनके एक दल ने जाटों और मराठों से सहायता मांगी। इनकी संयुक्त सेनाओं ने पठानों को हराकर उनसे फतहगढ़ का किला छीन लिया। मराठों ने आगे बढ़कर रुहेलों को कुमायूं की तराई में खदेड़ दिया। अंत में संधि हुई। इस सन्धि के अनुसार मराठों को इटावा का इलाका मिला और पूर्व में मैनपुरी तक जाटों की प्रभुता स्थापित हो गई। 

जयपुर और जोधपुर राज्यों में उत्तराधिकार के प्रश्न को लेकर जाटों और मराठों में अनबन हो गई। मराठों ने 1748 और 1750 ईस्वी में जयपुर पर चढ़ाई करके राजपूतों को अपना शत्रु बना लिया। वे अब मराठों को संदेह की दृष्टि से देखने लगे थे। आवश्यकता पड़ने पर मराठों को राजपूतों ने कोई मदद नहीं दी। सूरजमल भी अब मराठों से चौकन्ना हो गया था। 

मुगलों से युद्ध

जोधपुर राज्य में उत्तराधिकार का झगड़ा हुआ। मुगल बादशाह की ओर से मीर बक्शी सलावत खां ने अभय सिंह के भाई बख्तसिंह का पक्ष लिया। सलावत खां आगरा और अजमेर के सूबों पर अपना पूरा अधिकार स्थापित करना चाहता था। इसी कारण जाटों से उसकी अनबन हो गई। मीर बक्शी ने सूरजमल से दो करोड़ रुपयों की मांग की। जब यह मांग पूरी न हुई तो उसने ब्रज पर हमला कर दिया। सूरजमल ने पांच हजार सवारों के साथ उसे घेर लिया और मुगल फौज को तहस-नहस कर डाला। सलावत खां जाटों की इस शक्ति से भयभीत हो गया और उसने संधि कर ली। इस सन्धि की शर्तें यह थीं : 

पहली : शाही सेना पीपल के पेड़ों को न काटेगी

दूसरी : पीपल की पूजा न रोकेगी

तीसरी : नारनौल से आगे मुगल सेना न बढ़ेगी।

1753 ईस्वी में बादशाह अहमदशाह और उसके वजीर सफदरजंग में झगड़ा शुरू हो गया। इन्तिज़ामुद्दौला नया वजीर बनाया गया। सूरजमल ने सफदर द्वारा विद्रोह करने पर उसकी सहायता की। मराठों ने सफदर के विरोधी इमाद का पक्ष लिया। इससे जाटों और मराठों के बीच वैमनस्य बढ़ा।

मराठों की शक्ति का विस्तार

इस समय राजधानी दिल्ली की दशा डांवाडोल हो गई थी। मराठों के लगातार हमलों से आजिज आकर मुगल बादशाह अहमदशाह ने उनसे सन्धि कर ली थी और उन्हें मुगल साम्राज्य की रक्षा का पूरा अधिकार सौंप दिया था। इसके बदले में मराठों को अजमेर तथा आगरा की सूबेदारी, पंजाब और सिंध की चौथ और कई बड़ी जागीरें मिल गेन थीं। दक्षिण मालवा और बिहार-बंगाल पर मराठों का प्रभुत्व पहले से ही था। इस तरह अठारहवीं शताब्दी के मध्य में अवध और इलाहाबाद को छोड़कर प्रायः सारे मुगल साम्राज्य का आधिपत्य मराठों को प्राप्त था। 

अमहदशाह अब्दाली

नादिरशाह की मृत्यु (1747 ईस्वी) के बाद अहमदशाह अब्दाली ने उसका स्थान लिया। भारत पर उसके लगातार हमले होने लगे। मुगल बादशाह इन हमलों को रोकने में नाकामयाब रहा। 1751 ईस्वी में अब्दाली ने लाहौर तक बढ़कर पूरे पंजाब पर कब्जा कर लिया। बादशाह मराठों से सहायता के लिए गुहार लगाता रहा पर वे टालते रहे। बालाजी पेशवा अपनी अदूरदर्शिता के कारण दक्षिण में विदेशियों और स्थानीय राजाओं के साथ लड़ने में फंसा रहा और उत्तर पश्चिम भारत की ओर आवश्यक ध्यान नहीं दे पाया। 

दिल्ली की लूट

दिल्ली की दशा लगातार खराब होती रही। 1753 ईस्वी में जाटों ने सफदर जंग की सहायता करने के दौरान पुरानी दिल्ली के कई मुहल्ले लूट लिए थे। बहुत से लोग डर के मारे इधर उधर भाग गए थे। दिल्ली की जनता बहुत समय तक इस लूटपाट को ‘जाटगर्दी’ के नाम से याद करती रही। इसी समय बलराम (बल्लू जाट) का उदय हुआ। वह दिल्ली और आगरा के मध्य लूटमार करने लगा था। उसने बल्लभगढ़ में एक किला बनवाया, जहां से वह धावे किया करता था। 23 नवम्बर 1753 ईस्वी को बल्लू जाट को मार डाला गया और बल्लभगढ़ के किले पर मुसलमानों का अधिकार स्थापित हो गया।

मराठों की ब्रज पर चढ़ाई

जनवरी 1754 ईस्वी में मराठों ने ब्रज पर चढ़ाई कर दी और कुम्हेर के किले पर घेरा डाल दिया। मल्हारराव के पुत्र खांडेराव होल्कर के नेतृत्व में मराठों की फौज कुम्हेर के मजबूत किले को घेरे हुए थी। एक दिन किले से चली एक तोप का गोला लगने से खांडेराव बुरी तरह घायल हो गया जिससे उसकी मृत्यु (15 मार्च 1754 ईस्वी) हो गई। उसकी नौ पत्नियां चिता में जलकर सती हो गईं। दसवीं पत्नी गर्भवती होने के कारण सती नहीं हुई। यह महिला भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध धर्मपरायणा रानी अहिल्याबाई होल्कर थी। जब मल्हारराव होल्कर ने अपने पुत्र की मृत्यु का समाचार सुना तो वह दुख से पागल हो उठा। उसने क्रोध में जाटों के समूल नाश की प्रतिज्ञा की। खांडेराव का संस्कार करने वह पहले मथुरा आया। मुगल बादशाह और सूरजमल ने भी खांडेराव की मृत्यु पर शोक प्रकट किया। बाद में सूरजमल की महारानी किशोरी और मंत्री रूपराम कटारा के कूटनीतिक प्रयासों से सूरजमल और मराठों के मध्य समझौता हो गया। सूरजमल ने मराठों को तीस लाख रुपया देने का वादा किया। इसके अलावा उसने मुगल बादशाह व मराठों को दो करोड़ रुपया भी देने का वचन दिया। मुगल बक्शी इमाद और मराठे कुम्हेर छोड़कर मथुरा चले गए। 

अहमदशाह की कैद

मुगल बादशाह की नीति और उसकी कायरता के कारण दिल्ली की दशा अब बहुत खराब हो चुकी थी। खजाने में पैसे की बहुत कमी हो गई थी। सिपाहियों को महीनों तक तनख्वाह भी नहीं मिलती थी। शाही परिवार भी भुखमरी के कगार पर था। शाही रानियों और राजकुमारियों की जैसी दुर्दशा इस समय थी वह पहले कभी नहीं हुई थी। अब फौज ने दिल्ली के अमीरों को लूटना शुरू कर दिया था। नए वजीर से कुछ करते न बन रहा था। अंत में 1754 ईस्वी में मराठों की सहायता से इमाद नया वजीर बन गया। उसने विश्वासघात कर अमहदशाह और उसकी माँ को कैद कर लिया तथा बहादुरशाह के पोते को आलमगीर द्वितीय के नाम से बादशाह बना दिया। इमाद को इस काम में मदद देने के कारण मराठों से जाट, राजपूत, रुहेले तथा अवध के नवाब सभी नाराज हो गए।

अब्दाली का आक्रमण

इमाद ने 1756 ईस्वी में पंजाब पर कब्जा कर लिया जिससे अब्दाली उससे नाराज हो गया। उसने एक बड़ी फौज लेकर भारत पर आक्रमण कर दिया। अगले साल वह दिल्ली की ओर बढ़ा। रुहेले भी उससे मिल गए। इमाद डर गया और उसने अब्दाली के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। अब कोई अवरोध नहीं था। अब्दाली की फौज बिना किसी रुकावट के दिल्ली पहुंची और उसने वहां के धनी लोगों से लूटपाट शुरू कर दी।

ब्रज में अब्दाली का प्रवेश

मराठे इस समय दक्षिण में उलझे हुए थे। पेशवा की असफल नीति के कारण अंग्रेजों ने मराठों का मजबूत जहाजी बेड़ा 1756 ईस्वी में नष्ट कर दिया था। ग्वालियर में अंताजी के नेतृत्व में कुल तीन हजार मराठा फौज थी जो अब्दाली का सामना करने पहुंची। अंताजी फरीदाबाद में घिर गया वहां से किसी तरह भागकर उसने मथुरा में शरण ली। सूरजमल ने अपने राज्य की रक्षा के लिए कुम्हेर के किले में मोर्चा लगाया। उसने अपने पुत्र राजकुमार जवाहरसिंह को दस हजार जाट सैनिकों के साथ अब्दाली का रास्ता रोकने के लिए दिल्ली से मथुरा के बीच नियुक्त किया। मराठों और जाटों की फुट का लाभ अब्दाली को मिला। इसलिए अब्दाली ने जाटों की शक्ति को नष्ट करने तथा सूरजमल से अधिक से अधिक धन वसूलने के इरादा किया। बल्लभगढ़ में जाटों की एक टुकड़ी को परास्त करने के बाद जहान खां और नजीब के नेतृत्व में बीस हजार सिपाही आगे रवाना किये। उसने अपने सिपाहियों को जाटों के राज्य में घुसकर लूटमार करने और मथुरा नगर को नष्ट करने के आदेश दिए। 

चौमुहां का युद्ध

चौमुहां मथुरा नगर से आठ मील उत्तर में दिल्ली के रास्ते पर है। अफगान सेना मथुरा की ओर बढ़ी। चौमुहां में राजकुमार जवाहरसिंह ने अपना मोर्चा लगाया। उसने अफगान सेना का कड़ा मुकाबला किया। जाट वीरों ने लगातार नौ घंटे तक युद्ध लड़ा। इस युद्ध में दोनों ओर से मिलाकर दस-बारह हजार सिपाही मारे गए। अंत में अपनी पराजय निश्चित देख जाटों को पीछे हटना पड़ा गया। 

मथुरा की बर्बादी

एक मार्च 1757 ईस्वी को अफगान सेना मथुरा पहुंची। उस दिन होली का त्योहार था। चार घण्टों तक हिंदुओं की मारकाट और अन्य अत्याचार होते रहे। हिन्दू जनता में पुजारियों की संख्या अधिक थी। नगर में थोड़े से मुसलमान भी थे उन्हें भी नहीं छोड़ा गया। मंदिरों की मूर्तियां नष्ट की गईं। मकानों को तोड़कर उनमें आग लगाई गई। तीन हजार मनुष्यों की हत्या करने के बाद जहान खां नजीब के नेतृत्व में फौज को मथुरा छोड़कर चला गया। वह सिपाहियों को आदेश देकर गया कि अब जो हिन्दू मथुरा में बचे हैं उन्हें मौत के घाट उतार दो। नजीब और उसकी सेना तीन दिन तक मथुरा में ठहरकर लूटमार करती रही। गड़ा हुआ धन तक खोद कर निकलवा लिया गया। बहुत सी स्त्रियों ने अपनी इज्जत बचाने के लिए यमुना की गोद में शरण ली, बहुत सी कुओं में डूब मरीं। जो बचीं उन्हें अफगान अपने साथ उठा ले गए जहां उन्हें मृत्यु से भी बदतर यातनाएं भोगने को मजबूर किया गया। 

एक मुसलमान प्रत्यक्षदर्शी ने लिखा है कि ‘सड़कों और बाजारों में सर्वत्र हलाल किये हुए लोगों के धड़ पड़े हुए थे और सारा शहर जल रहा था। कितनी ही इमारतें धराशाई कर दी गईं थीं। यमुना नदी का पानी नर-संहार के बाद सात दिन तक लगातार लाल रंग का बहने लगा था। नदी के किनारे पर बैरागियों और सन्यासियों की झोंपड़ियां थीं। इन सब साधुओं और उनकी गायों की गला काट कर हत्या की गई।’

जहान खां मथुरा से चलकर वृन्दावन गया और वहां उसने वैष्णवों की बड़ी संख्या में हत्याएं कीं। उक्त प्रत्यक्षदर्शी के अनुसार ‘ जिधर नजर जाती मुर्दों के ढेर के ढेर दिखाई पड़ते थे। सड़कों से निकलना तक मुश्किल हो गया था। लाशों से विकट दुर्गंध आती थी, सांस लेना तक दूभर हो गया था।’

महावन और वृन्दावन की लूट

15 मार्च 1757 ईस्वी को अहमदशाह अब्दाली खुद मथुरा पहुंचा। उसने यमुना पार करके महावन में डेरा डाल दिया और वहां भी लूटमार की। वह गोकुल को बर्बाद करना चाहता था पर वहां के साहसी नागा सन्यासियों के सामने उसकी दाल न गली। चार हजार नागा भभूत लगाकर अफगान सेना से लड़ने निकल पड़े। इस युद्ध में नागा बड़ी वीरता से लड़े। करीब दी हजार नागा साधु बलिदान हुए और इतनी सी संख्या में शत्रु सेना को भी मौत के घाट उतार दिया। अंत में अब्दाली ने अपनी फौज की वापस बुला लिया जिससे गोकुल नष्ट होने से बच गया। महावन के खेमे में हैजा फैलने के कारण अब्दाली की सेना के सैनिक मरने लगे। दरअसल यह हैजा यमुना का प्रदूषित पानी पीने के कारण हुआ था। इसलिए मजबूर होकर अब्दाली यहां से दिल्ली की ओर चल पड़ा। रास्ते में वृन्दावन को फिर से चार दिन तक लूटा गया। मथुरा-वृन्दावन की इस लूट से अब्दाली को करीब बारह करोड़ रुपये की धनराशि प्राप्त हुई थी। जिसे वह तीस हजार घोड़ों, खच्चरों व ऊंटों पर लादकर ले गया। 

सूरजमल से पत्र व्यवहार

अब्दाली का मुख्य लक्ष्य सूरजमल से धन वसूल करना था पर वह सूरजमल के किलों पर आक्रमण करके उससे दीर्घकालिक युद्ध में उलझना भी नहीं चाहता था। वह यह भी समझ रहा था कि जटवाड़ा के अंदर घुसकर सूरजमल को हराना बेहद मुश्किल होगा इसी वजह से उसने पत्र लिखकर सूरजमल से धन की मांग की तथा उसे अपने सामने उपस्थित होने का आदेश दिया। सूरजमल धन के मामले में उल्टे-सीधे वायदे करके अब्दाली को टालता रहा। अंत में अब्दाली द्वारा उसे कड़ी भाषा में चेतावनी दी तो सूरजमल ने भी उसे युद्ध के लिए आमंत्रण दे ही दिया। सूरजमल ने उसे लिखा कि अब्दाली उसके किलों को मिट्टी का ढेर समझ रहा है, वह उन पर आक्रमण करे ताकि उसके किलों की मजबूती की परीक्षा हो सके। वृन्दावन से लौटकर अब्दाली ने शेरगढ़ में पड़ाव डाला और सूरजमल की ओर से धन आने की प्रतीक्षा करता रहा। पर सूरजमल ने उसे फूटी कौड़ी भी नहीं दी। अंत में वह दिल्ली लौट गया। दिल्ली में अब्दाली ने रुहेला सरदार नजीब खां को दिल्ली का प्रशासक बनाया। पंजाब में उसने अपने पुत्र तैमूर और सेनापति जहान खां को नियुक्त किया। इसके बाद अब्दाली अफगानिस्तान लौट गया।

(आगे किश्तों में जारी)

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