पूर्व कथा
पिछले भागों में हम यदुवंश, श्रीकृष्ण की कथा, महाजनपदकाल, मौर्य साम्राज्य, शुंगवंश, मथुरा के मित्रवंश, मथुरा के शक, दत्त, कुषाण, नाग, गुप्त वंश, कन्नौज के मौखरि, हर्षवर्धन, कन्नौज के गुर्जर-प्रतीहार, महमूद गजनवी का आक्रमण, कन्नौज के गाहड़वाल, और दिल्ली सल्तनत के गुलाम, खिलजी, तुगलक, सैय्यद एवं लोदी आदि वंशों के शासकों की कहानी बता चुके हैं। इसके बाद बाबर ने भारत में मुगल सत्ता की नींव डाली, हुमायूं का शासन, शेरशाह सूरी व उनके वंशजों के बाद फिर से हुमायूं की वापसी व अकबर की उदार नीति से ब्रज में वैभव का संचार हुआ। अब आगे…
जहांगीर
अकबर की मृत्यु के बाद उसका बड़ा पुत्र सलीम जहांगीर के नाम से मुगल बादशाह बना। उसने सहिष्णुता के साथ अकबर की धार्मिक नीति का ही अनुसरण किया। उसके काल में ब्रज प्रदेश में सुख शांति बनी रही। शुरूआत में जहांगीर के बड़े पुत्र खुसरो ने जब विद्रोह किया था तब उसने व उसके साथियों ने पंजाब जाते समय ब्रज प्रदेश में लूटमार की थी। जहांगीर के समय पर 1619 ईस्वी में ब्रज प्रदेश में प्लेग की बीमारी फैल गई थी। इस बीमारी के कारण सैकड़ों मनुष्य कालकलवित हुए थे।
जहांगीर के समय पर मन्दिर निर्माण
जहांगीर के शासनकाल में मन्दिर निर्माण का कार्य निरन्तर जारी रहा। मथुरा और वृन्दावन में नए नए मन्दिर बनते रहे। ओरछा के राजा मधुकर शाह का पुत्र वीरसिंह जहांगीर का विश्वासपात्र था। वीरसिंह ने मथुरा में केशवराय का प्रसिद्ध मंदिर बनवाया। इस मन्दिर की सजावट और पच्चीकारी में बहुत धन खर्च किया गया। यह मंदिर अपने समय के सबसे अधिक सुंदर और आश्चर्यजनक मंदिरों में गिना जाता था। इसके निर्माण में 33 लाख रुपये की लागत आयी थी। टैवेनियर ने इन मन्दिर का विशद वर्णन किया है। वीरसिंह ने मथुरा परगने में शेरसागर और समुंदर सागर नाम के दो जलाशय भी बनवाये थे। शेरसागर का घेरा साढ़े पांच कोस तथा समुंदर सागर का घेरा बीस कोस के विस्तार में था। हालांकि इन दोनों जलाशयों के बारे में कोई जानकारी बाद में नहीं मिलती है। जहांगीर के काल में मदन मोहन, जुगलकिशोर और राधाबल्लभ के तीन बड़े मंदिर भी बनवाये गए। जुगलकिशोर का मन्दिर 1627 ईस्वी में नोनकरण (लूणकरण) चौहान ने बनवाया था। राधाबल्लभ का मन्दिर 1626 ईस्वी में दिल्ली के खजांची सुंदरलाल कायस्थ ने बनवाया था।
जहांगीर की मृत्यु
जहांगीर 1619 ईस्वी में आगरा से लाहौर गया। 28 अक्टूबर 1627 ईस्वी को लाहौर में ही उसकी मृत्यु हो गई। शाहजहां तक दक्षिण में था। अब वह सम्राट बना और अजमेर के रास्ते जनवरी 1628 ईस्वी में वह आगरा पहुंचा।
शाहजहां
शासन के शुरुआती वर्षों में शाहजहां को कई छोटे-मोटे विद्रोहों का सामना करना पड़ा। पर ब्रज प्रदेश में शांति बनी ही रही। 1648 ईस्वी में शाहजहां ने दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया। दिल्ली में राजधानी बनानेक बाद भी शाहजहां ने आगरा की उपेक्षा नहीं की और यहां ताजमहल, दीवान खास और मोती मस्जिद आदि का निर्माण कराया।
शाहजहां की धार्मिक नीति
इसके काल मे धार्मिक नीति में बदलाव होने शुरू हुए। हिन्दुओं के साथ बरती जा रही सहिष्णुता अब गुजरे जमाने की बात थी। गरीब प्रजा और किसानों के साथ भी कड़ाई होती थी। 1635 ईस्वी से मथुरा परगने में विद्रोह होने शुरू हुए। इन विद्रोहों को दबाने के लिए 1636 ईस्वी में मुर्शिदकुली खां तुर्कमान को मथुरा का फौजदार नियुक्त करके भेजा गया। यह मुर्शिदकुली कामी व्यक्ति था। वह विद्रोह दबाने के नाम पर सुंदर औरतों को बलपूर्वक अपने हरम में भरने लगा। वह गोकुल के श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के मेले से सुंदर स्त्रियों को अपहरण करके ले जाता था। इस फौजदार के खिलाफ आक्रोश और पनपा। 1638 ईस्वी में इस फौजदार की रात को सोते समय हत्या कर दी गई। 1642 ईस्वी में इरादत खां को मथुरा की फौजदारी पर नियुक्त किया गया। यह व्यक्ति हिन्दू उपद्रवियों पर सख्ती नहीं कर पाया इसलिए इसे हटा दिया गया।
मथुरा की जागीर दाराशिकोह को
1654 ईस्वी के बाद से मुगल शासन में दाराशिकोह का प्रभाव बढ़ने लगा। यह शाहजहाँ का बड़ा पुत्र था। उदय उदार व्यक्ति था। इसकी नीति सहिष्णुता की थी। इसके कारण बाद के वर्षों में हिंदुओं के प्रति उदारता दर्शाई गई। मथुरा का परगना दाराशिकोह की जागीर में दे दिया गया था। इसी काल में दाराशिकोह ने वीरसिंह के बनवाये केशवराय के मंदिर में पत्थर का एक सुंदर कटहरा भेंट किया था।
मथुरा में धोखे से कैद किया मुराद
सितम्बर 1657 ईस्वी में शाहजहां दिल्ली में बहुत बीमार पड़ गया। शाहजहाँ की मृत्यु की अफवाह सारे साम्राज्य में फैल गई और उसके पुत्रों में उत्तराधिकार का युद्ध छिड़ गया। 29 मई को सामूगढ़ के युद्ध में औरंगजेब और मुराद की संयुक्त सेनाओं ने दारा शिकोह को पराजित कर दिया। दारा दिल्ली की ओर भाग निकला। दारा का पीछा करते हुए औरंगजेब और मुराद मथुरा पहुंचे। मथुरा में शिविर में औरंगजेब ने धोखे से मुराद को नशे की हालत में गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद 21 जुलाई 1658 ईस्वी को दिल्ली में औरंगजेब गद्दी पर बैठ गया।
औरंगजेब और ब्रज के शुरुआती विद्रोह
आगरा पर अधिकार होते ही ब्रज प्रदेश औरंगजेब के अधिकार में हो गया। उस समय मथुरा परगने में पूरी तरह अराजकता का मौहाल था। दारा के कर्मचारी परगना छोड़कर भाग गए थे। किसान लूटमार में लगे हुए थे। जून 1658 ईस्वी में औरंगजेब ने मथुरा में नए फौजदार की नियुक्ति की। शहजादों के युद्ध के कारण व्याप्त अराजकता का लाभ स्थानीय किसानों ने भी उठाया।मथुरा और कोल (अलीगढ़) के परगनों में किसानों के नेता नन्दराम ने लगान जमा करना बंद कर दिया था। 1660 ईस्वी में जब औरंगजेब की सत्ता पूरी तरह जम गई तब नन्दराम ने भी विद्रोह छोड़कर उसकी अधीनता स्वीकार कर ली।
फौजदार अब्दुन्नबी की नियुक्ति
मथुरा परगना दिल्ली और आगरा के मार्ग पर होने के कारण यहां शांति बनाए रखना बहुत जरूरी था। इसके लिए 1660 ईस्वी में औरंगजेब ने अब्दुन्नबी को यहां का फौजदार नियुक्त कर भेजा। अब्दुन्नबी ने मथुरा में एक पुराने मंदिर के खंडहर पर जुमा मस्जिद का निर्माण (1661-62 ईस्वी) कराया।
शिवाजी का मथुरा आगमन
जनवरी 1666 ईस्वी में शाहजहाँ की आगरा में मृत्यु होने के एक माह बाद औरगंजेब आगरा पहुंचा था। इस बार वह अक्टूबर माह तक यहीं रुका। इस अवसर पर आगरा में ही उसके दरबार में शिवाजी उपस्थित हुए। जहां उन्हें कैद कर लिया गया। अपनी चतुराई से शिवाजी अपने पुत्र शम्भाजी के साथ इस कैद से भाग निकले। आगरा से निकलकर शिवाजी सीधे मथुरा पहुंचे। यहां पर उन्होंने अपनी दाढ़ी-मूंछे साफ कराकर भस्म पोत कर सन्यासी का भेष बनाया। शिवाजी सन्यासी के भेष में इलाहाबाद के रास्ते महाराष्ट्र चले गए। उन्होंने अपने पुत्र बालक शम्भाजी की मथुरा के एक ब्राह्मण परिवार के पास छोड़ दिया। यह ब्राह्मण परिवार मूल रूप से महाराष्ट्र का ही था और इस परिवार की मथुरा में बहुत प्रतिष्ठा थी। इस परिवार ने शम्भाजी की रक्षा की, बाद में शिवाजी ने शम्भाजी को अपने पास बुला लिया।
मंदिरों को तोड़ने का फरमान
औरंगजेब जब आगरा में ही था तब उसने सुना कि दारा ने मथुरा के केशवराय मंदिर में कटहरा भेंट किया था। औरंगजेब के आदेश पर अब्दुन्नबी ने तत्काल उस कटहरे को तोड़कर फेंक दिया। औरंगजेब की नीति हिन्दू विरोध की थी इसलिए हिंदुओं पर अत्याचार किये जाने लगे। हिंदुओं पर नए नए कर लगाए गए। इस्लाम धर्म स्वीकार करने के लिए उन पर दबाव बनाया जाने लगा। नए मन्दिरों के निर्माण पर पहले की रोक लग चुकी थी। 9 अप्रैल 1669 ईस्वी को औरंगजेब ने आदेश जारी किया कि ‘हिंदुओं के सारे मन्दिर, पूजाघर और पाठशालाएं तोड़ दी जाएं तथा उनका धार्मिक पठन-पाठन और पूजा-पाठ पूरी तरह बंद कर दिया जाए।’
गोकला ने थामा विद्रोह का झंडा
पिछले नौ वर्ष से अब्दुन्नबी मथुरा परगने में बहुत सख्ती से शासन कर रहा था। उसकी कड़ाई के कारण प्रजा में उसके खिलाफ असन्तोष पनप रहा था। मन्दिर तोड़ने के फरमान ने तो जनता के गुस्से को भड़का दिया। स्थानीय किसानों ने तिलपत के जमींदार गोकला के नेतृत्व में विद्रोह शुरू कर दिया। इन विद्रोहियों में सबसे अधिक संख्या जाट किसानों की थी। अब्दुन्नबी और गोकला क मध्य बशरा गांव में 10 मई 1669 ईस्वी को युद्ध हुआ। इस युद्ध मे अब्दुन्नबी की हार हुई और वह मारा गया।
गोकला के लिए खुद आया औरंगजेब
अब्दुन्नबी को मारने के बाद गोकला का साहस और बढ़ गया। उसने सादाबाद के परगने को लूट लिया। अब गोकला के धावे आगरा तक होने लगे। गोकला का दमन करने के लिए कई सेनानायक भेजे गए पर गोकला को नियंत्रित नहीं कर पाए। इस दौरान गोकला के साथ समझौते के भी प्रयास किये गए पर उसने समझौता करने से इनकार कर दिया। अंत मे 28 नवम्बर 1669 ईस्वी को औरंगजेब स्वयं दिल्ली से मथुरा के लिए निकला। चार दिसम्बर को हसन अली ने विद्रोहियों को घेर लिया। विद्रोहियों ने कई घंटे तक शाही सेना का सामना किया। अंत में उन्होंने जौहर किया। अपने स्त्री-बच्चों को मारकर वे स्वयं लड़ते हुए काम आए। हसन अली को औरंगजेब ने मथुरा का फौजदार नियुक्त किया।
तिलपत का युद्ध और गोकला का अंत
कुछ दिन बाद तिलपत से बीस मील की दूरी पर हसन अली और गोकला के मध्य भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में विद्रोहियों की हार हुई और वे भागकर तिलपत पहुंच गए। हसन अली ने तिलपत को जा घेरा। तीन दिन तक यह घेरा चलता रहा। अंत में घमासान और निर्णायक युद्ध हुआ। इस युद्ध में विद्रोहियों की हार हुई। शाही सेना के 4000 सैनिक मारे गए और 5000 विद्रोही मारे गए, 7000 से अधिक कैद किये गए। गोकला और उसके कुटुम्बी भी कैद किये गए। कैदियों को पकड़ कर आगरा लाया गया। आगरा में कोतवाली के सामने बड़ी ही निर्दयतापूर्वक गोकला की हत्या कर दी गई।
(आगे किश्तों में जारी)