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दो खामोश आंखें पीठ में सुराख किये जाती हैं

योगेन्द्र सिंह छोंकर
दो खामोश ऑंखें
मेरी पीठ में सुराख़ किए  जाती हैं!
माना इश्क है खुदा
क्यों मुझ काफ़िर को पाक किए जाती हैं!
भागता हूँ जितना
चुभन उतनी बढती जाती है!
ठहर जाता हूँ तो
चुभन कुछ कम हो जाती है!
है कौन सी शमसीर
जो मुझे हलाक किए जाती है!
देखता हूँ मुड़कर
चुभन ठीक दिल में होती है!
मान ले बंज़र है ये
क्यों इसमें इश्क की आरजू बोती है!
उगाकर चाहत का केक्टस
क्यों मुझे उदास किए जाती है!
फूलों की बगिया नहीं
मेरी राह में कर्तव्यों का रेगिस्तान है!
तेरी चाहत हूँ मैं
मगर मेरी चाहत मेरा मुल्क महान  है!
खुला छोड़ दे मुक्ति पथ पर
क्यों अपनी जुल्फों में मुझे बांध लिए जाती है!
जानती हूँ तुझे
जुबां से कब कुछ कहती हूँ!
वार करती हूँ  पीठ पर तेरी
दर्द अपने दिल पर सहती हूँ!
इतना आसां कहाँ चाहत का मिल जाना
मैं तो बस छोंकर मजाक किए  जाती हूँ!
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