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दीपावली के पटाखे और संतोष का दर्द

कहानी

पायल कटियार

दीपावली की तैयारियों को लेकर घर-घर में सफाई का काम चल रहा था। संतोष भी दीपावली के आने का काफी बेसब्री से ही इंतजार कर रहा था। दीपावली की सफाई में उसे अपने मालिक के घर से अच्छा खासा ईनाम मिल जाता था। उसी ईनाम के सहारे उसका पूरा साल कट जाता था। ईनाम था मालकिन के दिये पुराने कपड़े, घर से निकाले हुए बेकार सामान, जिसे पाकर वह खुश हो जाता था। पुराने कपड़ों को उसका बेटा और वह पूरी साल खूब पहनते थे। कपड़े फटने से पहले ही अगली दीपावली आ जाती बस, इस तरह से कट जाती उनकी साल। दीपावली वाले दिन मिली मिठाई के डिब्बे से उसके घर दीपावली का पूजन हो जाता था। चार दिन बाद फिर से मालकिन बची हुई मिठाईयां उसे थमा देती थीं, यह कहते हुए कि संतोष ले जा हम कितना खाएंगे?

संतोष मन ही मन सोचता जब खुद से नहीं खाई गई तो हमें थमा दी, पहले देतीं तो वह अपने रिश्तेदारों के सामने रखकर धाक जमाता कि देखो मेरे घर में कितनी मिठाई है, फिर सोचता कि चलो अच्छा है, बाद में मिली। मेरा बेटा और मैं खायेंगे वरना रिश्तेदार सब चट कर जाते। यह सोचकर वह मन ही मन मुस्कराता हुआ मिठाई लेकर चला जाता। संतोष की हर दीपावली कुछ यूं ही मन जाती थी। पटाखों के लिए वह हमेशा अपने बेटे से यह ही कहता कि यह सब तो बेकार की चीजें हैं। अमीरों के चोचले हैं फिर कोई दुर्घटना हो जाए तो और मुसीबत। बेटा पढ़ाई में अव्बल और दुनियादारी में भी समझदार था। कोई जिद न करता पटाखों और नए कपड़ों के लिए। संतोष का बेटा उसके मालिक के बेटे के साथ ही एक ही स्कूल में पढ़ता था। उसकी योग्यता को देखते हुए ही उसके मालिक ने उसके बेटे की फीस का खर्चा अपने जिम्मे ले रखा था। इसलिए दोनों बच्चे अच्छे मित्र भी थे।

संतोष का भी जैसा नाम था संतोष वैसा ही संतोषी था। कभी किसी चीज को लेकर अपने मालिक से जिद नहीं करता था यही कारण था कि उसके साथ वालों की तनख्वाह डबल हो गई थी पर वह वहीं का वहीं था। इस बात को लेकिर कई बार उसके मित्र उसका मजाक बनाते थे पर संतोष यह कहकर टाल देता था कि मेरे मालिक मेरे अन्नदाता हैं वह मेरे लिए सही ही सोचते होंगे। वहीं संतोष की तरह से उसकी पत्नी भी संतोषी स्वभाव की महिला थी। बिना किसी शिकायत से साथ जिदंगी का गुजारा हो रहा था।

दीपावली की रात को पूजा के लिए संतोष की पत्नी थाली सजाय बैठी थी। उसे इंतजार था अपने पति और बेटे के घर लौटने का। सीमित संसाधनों से अपने घर को सजाने में उसने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। गोबर से लीपकर फूल पत्ती से बंदरवान और गेरू से रंगोली सजा ली थी उसके बेटे को रंगोली बेहद पसंद थी। हर साल दीपावली पर वह इसी तरह से घर की सजावट करती थी। दीपकों में बाती और तेल डाल रही थी उसी समय कोई उसके घर के दरवाजे को जोर-जोर से पीटना शुरू कर देता है।

कौन है आ रही हूं कहती हुई वह लापरवाही से उठी और बड़बड़ाती जा रही थी कि अरे दीपावली वाले दिन भी चैन नहीं है। मौहल्ले की औरतों के पास लगता है कोई काम धाम नहीं है आज भी आ गईं। असल में उसके घर दिन भर मौहल्ले की औरतों को जमावड़ा लगा रहता था। वह बड़बड़ाती हुई अपने सिर का पल्लू सही करते हुए आ ही रही थी कि तभी गेट खुलने से पहले ही किसी ने कहा जल्दी खोल काकी।

क्यों कहीं पहाड़ गिर गया है क्या जो जल्दी खोलूं? वह खिसियाती हुई बोली।

गेट के बाहर से आवाज आई- हां पहाड़ ही टूट पड़ा है, तेरी जिंदगी में। संतोष की पत्नी ने जब यह शब्द सुने तो वह और भी गुस्से से लाल पीली होने लगी कमीनों आज के दिन तो काली जुबान मत बोलो कहते हुए उसने दरवाजा खोल दिया। उसने देखा कि सामने एक पड़ौस का ही लड़का खड़ा था और उससे कह रहा था जल्दी चलो भईया को कुछ हो गया है। साहब के यहां पर पटाखे की आग की चपेट में आ गये हैं। घर का दरवाजा बंद किये ही संतोष की पत्नी नंगे पैर ही मालिक के घर की ओर भागी चली गई।

वहां उसने देखा संतोष बेटे का सर अपनी गोद में रखकर पछाड़ें खा रहा है। जिसे देखते ही वह वहीं खड़ी-खड़ी गिर पड़ी। कुछ ही देर में एक एंबूलेंस आई और उसके बेटे को लेकर लेकर अस्पताल चली गई। अस्पताल में पहुंचते ही डॉक्टर ने उसके बेटे को देखते ही मृत घोषित कर दिया। संतोष और उसकी पत्नी की जैसे दुनियां ही उजड़ गई थी। संतोष और उसकी पत्नी सोच रहे थे कि आखिर कहां गलती हुई, जो हमारे साथ इतना बुरा हुआ। संतोष भी मन ही मन विचार कर रहा था कि आखिर दूसरों की सजा भगवान निर्बल को ही क्यों देता है? उसके बेटे की क्या गलती थी? वह तो मालिक के बेटे के कहने पर उसकी बारूद बिछाने गया था। मालिक के बेटे ने बिना विचार किये ही उसमें आग लगी दी उससे पहले कि वह छत के दूसरे कोने से वापस लौटता आग ने पूरी छत पर तांडव करना शुरू कर दिया था। वह नीचे खड़ा अपने बेटे को धूं धूं करके जलते हुए देखता का देखता ही रह गया था। कुछ नहीं कर सका अपने बच्चे को बचाने के लिए।

मालिक का बेटा हर साल हजारों रूपये के पटाखे फोड़ता था और उसका बेटा उसकी आज्ञा का पालन करते हुए कभी उसके पटाखों की लड़ी बिछाता तो कभी मोमबत्ती जलाकर उसके लिए लाता था। जब कभी मालिक का बेटा उसे पटाखे छुड़ाने के लिए देता तो वह साफ मना कर देता था और कहता कि भईया जी मुझे पसंद नहीं है पटाखे फोड़ना। इसकी आवाज से बेजुबान जानवर डरकर भागते हैं। बिना किये ही कई कत्ल हो जाते हैं हमारे हाथों। कितनी सझदारी थी जरा से मासूम में। किसी ने सही कहा है कि गरीब के बच्चे समय से पहले ही समझदार हो जाते हैं। आज उसकी और उसके परिवार को उसकी समझदारी उसे ले डूबी। काश वह भी बाकी बच्चों की तरह ही पटाखे लेकर कहीं और चला जाता मालिक के बेटे की जी हजूरी न करता तो शायद आज उसके साथ इनता बड़ा हादसा न होता।

इस हादसे को एक साल बीत चुका था। मगर संतोष और उसकी पत्नी को लग रहा था आज की ही बात है। आज दीपावली थी पूरा शहर जगमगा रहा था मगर संतोष के घर में अंधेरा पड़ा हुआ था। वह और उसकी पत्नी एक कमरे में होने के बाद भी एक दूसरे से किसी प्रकार की कोई बात नहीं कर रहे थे दोनों ही अलग-अलग बैठे सोच विचार में लगे हुए थे कि अचानक बाहर से किसी ने गेट पर आवाज दी। विचारों की तंद्रा भंग हुई और दोनों एक दूसरे को देखने लगे कि आज कौन आ सकता है इस मनहूस घर में? यहां न रोशनी है न खुशियां। संतोष की पत्नी दरवाजा खोलने की जगह सीढ़ियां चढ़ती हुई छत पर चली गई। अब वह किसी से कोई बात नहीं करना चाहती थी इसलिए अपने घर के दरवाजे हमेशा बंद ही रखती थी। घर पर कोई भी आता तो वह अंदर या छत पर ही चली जाती थी। संतोष भी बेमन से ही बात करता था। पत्नी ने दरवाजा नहीं खोला तो दोबारा किसी ने दरवाजा पीटा। अब संतोष को ही मजबूरन दरवाजा खोलने के लिए उठना पड़ा।

उसने दरवाजा खोला तो देखा उसके मालिक और उनका बेटा खड़े थे। जिन्हें देखकर एक पल को संतोष के अंदर नफरत की भावना जाग उठी। फिर उसने धीरज रखा और उन्हें बिना कुछ बोले अंदर आ गया। बेटे की तस्वीर के आगे आकर फूट फूट कर रोने लगा। छत से उसकी पत्नी ने जब देखा तो वह भी तेज-तेज दहाड़े मारती हुई रो पड़ी। जिसे देख मालिक का बेटा उसके पास छत पर पहुंच गया। उसके पास आकर आंसू पोछने लगा। हाथ जोड़कर वह कहने लगा- आंटी जी मुझे माफ कर दो प्लीज, मैं भी आपका बेटा ही हूं, यह कहकर वह उसके पैरों में गिर पड़ा। रोते हुए कहने लगा आज के बाद मैं कभी भी किसी भी पटाखे में हाथ तक नहीं लगाउंगा। भईया सही कहते थे कि हम दीपावली में खुशियों से ज्यादा पटाखे का दुख देते हैं दूसरों को। न जाने कितने निर्दोष इन पटाखों से जलकर मार जाते हैं। कहते कहते वह रोने लगा। संतोष की पत्नी ने कदमों में पड़े बच्च को उठाकर सीने से लगा लिया और दहाड़े मार-मार कर रोने लगी किसी की हिम्मत नहीं थी कि वह उन दोनों को चुप करवा सके।

पायल कटियार (कहानी की लेखिका)

[नोट: इस कहानी के सभी पात्र और घटनाएं काल्पनिक है, इसका किसी भी व्यक्ति या घटना से कोई संबंध नहीं है। यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा।]

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