पिछले एक लेख में हमने राजस्थान के एक प्रसिद्ध लोककाव्य ढोला-मारू के बारे में चर्चा की थी। वस्तुतः यह एक प्रेम कथा है जो राजपुताना की मरुभूमि पर पल्लवित हुई। कालांतर में इसकी प्रसिद्धि अधिकांश उत्तर भारत में हो गई। यह कथा अलग-अलग इलाकों में स्थानीय भाषाओं में काव्य रूप में रची गई और गायी जाने लगी। ब्रज में भी ढोला-मारू की प्रेम कहानी कही-सुनी और गायी जाने लगी। करीब दो सौ वर्ष पहले यह कथा ब्रज में पहली बार गायी-सुनी गई। विस्तार से जानते हैं कि कैसे राजपुताना की यह प्रसिद्ध प्रेमकथा ब्रज का प्रसिद्ध लोककाव्य बनी।
मदारी ने रचा ब्रज का पहला ढोला
ब्रज का पहला ढोला रचने का श्रेय मदारी नामक एक कवि को जाता है। मदारी का जन्म करीब दो सौ वर्ष पूर्व मथुरा के लोहवन स्थान पर हुआ था। मदारी एक बार नगरकोट की देवी के दर्शन को कांगड़ा गए थे। वहां उन्होंने किसी राजस्थानी गायक से यह ढोला सुना। वापस लौटकर मदारी ने इस कथा को अपनी भाषा में इस काव्य को लिपिबद्ध किया। वह ढोला के पहले गायक थे। उन्होंने ढोला की 360 पहरियां रचीं थीं जिनमें से आज मुश्किल से एक तिहाई ही उपलब्ध हो सकी हैं। मदारी से यह कला उनके शिष्यों ने सीखी। मदारी के शिष्यों में सवाई, ब्रजलाल, गिरवर और लछमन आदि प्रमुख थे।
गढ़पती ने किया ढोला का विकास
ढोला के क्षेत्र में गढ़पती का बड़ा नाम है। कुछ तो गढ़पती को ढोला का आदि प्रवर्तक भी मानते हैं। गढ़पती संवत 1966 विक्रमी में जीवित था। स्पष्ट है गढ़पती मदारी से बहुत बाद में हुआ। जानकारों का मानना है कि गढ़पती ने ढोला मदारी के शिष्य ब्रजलाल और गिरवर के समय पर सीखा था। गढ़पती और मदारी के रचे ढोला में बहुत अंतर मिलते हैं। मदारी का ढोला साधारण शब्दों वाला था। उसमें ग्राम देहात में प्रचलित शब्दावली की प्रचुरता थी और आचरण और अनुभव भी देहाती ही झलकता है।गढ़पती ने अपने ढोला में संस्कृत के शास्त्रों की झलक और अलंकारिक सौंदर्य का समावेश किया।
मदारी और गढ़पती के काव्य की तुलना
मदारी के ढोला की तुकांतता बेहद लचर है वहीं गढ़पती ने तुकांतता को अधिक स्पष्ट और शुद्ध किया है। मदारी के समय पर ढोला बिना किसी साज के गाया जाता था। गढ़पती कि समय पर चिकाड़ा का प्रयोग आम हो गया। मदारी के समय पर कनटेका ढोला ही चलन में था। मुख्य गायक के साथ में एक सुरैया होता था जो आखरी पंक्ति के आखरी शब्द के स्वर को खींच कर स्वर देता था। गढ़पती कि समय पर सुरैया की संख्या बढ़ गई। इनकी भूमिका भी आखरी शब्द के स्वर को खींचने से बढ़कर अंतिम पंक्ति तक को गाने तक पहुंच गई। मदारी का ढोला संगीत गायन के तत्वों से हीन था। गढ़पती के समय पर यह ज्योनार गारी, मल्हार, निहालदे आदि तमाम राग-रागनियों से समाविष्ट हो गया।
ढोला गायन में चिकाड़ा का प्रयोग
चिकाड़ा एक तरह का वाद्य यंत्र है जो बहुत हद तक सारंगी से मिलता है। ढोला गाने वाले को ढुलैया कहते हैं। चिकाड़ा ढुलैया के हाथ में रहता था। चिकाड़ा का अविष्कार किसने किया यह अभी तक ज्ञात नहीं हो पाया है। पर यह यंत्र गढ़पती के समय पर प्रचलन में आ गया था। चिकाड़ा तीन-चार तारों वाला एक यंत्र होता था जो सारंगी की तरह शुद्ध ध्वनि तो नहीं देता था फिर भी संगीत के बहुत से उतार-चढ़ाव स्पष्ट करता था।
ढोला गायन में सुरैया की भूमिका
ढोला में दो तत्व प्रमुख हैं पहला है ढुलैया जो मुख्य गायक है। दूसरा है सुरैया जो ढुलैया को स्वर देता है। सुरैया का चलन मदारी के समय पर भी था। सुरैया गायक की पंक्ति के अंतिम अक्षर में मौजूद स्वर को खींच ले जाता था और ढुलैया जो आगे की पंक्ति गाता था उससे जोड़ देता था। सुरैया का मूल काम प्रत्येक पंक्ति के बीच एकरूपता बनाये रखने का था। ढोला पढ़ा लिखा जाने वाला महाकाव्य नहीं है यह गाया जाने वाला महाकाव्य है। अतः गाने में एकसूत्रता और अनवरतता बनाये रखने के लिए सुरैया की जरूरत हुई। सुरैया का काम वक्त के साथ-साथ विकसित हुआ। स्वर पकड़ने के लिए अंतिम दो-चार शब्दों को भी सुरैया लेने लगा। फिर यह हुआ कि आधी पंक्ति ढुलैया अकेला गाता था और शेष आधी पंक्ति ढुलैया-सुरैया दोनों मिलकर गाने लगे।
ब्रज में प्रचलित ढोला की कथावस्तु
मदारी ने ढोला की शुरूआत सुआ-संदेशे से की है। सुआ के द्वारा मारू का पत्र ढोला तक आता है। रेवा की सौतियाडाह, करहा की स्वामिभक्ति, गंगाराम का सहयोग, बुध भाटी, सेढ़ मल्ल बनिया, मोती बनिया आदि के किरदार बड़ी खूबसूरती से गढ़े गए हैं। बाग के ढोला में मारू के द्वारा ली गयी परीक्षा में ढोला की सफलता का वर्णन दर्शकों को खासा पसंद आता है। मारू का प्रेम और ढोला की वीरता श्रोताओं को बांधे रखती है। गौने के बाद का प्रसंग यहां बेहद मार्मिक कर दिया गया है। मदारी ने गौने के बाद ढोला और मारू को सुखपूर्वक साथ नहीं रहने दिया है। एक साधु के श्राप से राजा नल और राज्य को विपदा से बचाने के लिए मारू ढोला के साथ प्राणों का उत्सर्ग कर देती है।